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धात्री (dhAtrI)

 
Spoken Sanskrit English

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

foster-mother

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

midwife

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

Indian

gooseberry

[

Emblica

Officinalis

-

Bot.

]

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

earth

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

female

supporter

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

nurse

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

mother

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

wet

nurse

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

foster-mother

उपमातृ

-

upamAtR

-

Feminine

-

foster-mother

पालनी-जननी

-

pAlanI-jananI

-

Feminine

-

foster-mother

सामान्यधात्री

-

sAmAnyadhAtrI

-

Feminine

-

common

nurse

or

foster-mother

देवमातृक

-

devamAtRka

-

Adjective

-

having

the

god

or

clouds

as

foster-mother

धात्री

-

dhAtrI

-

Feminine

-

foster-mother

अनुगृह्णाति

{

अनुग्रह्

}

-

anugRhNAti

{

anugrah

}

-

verb

-

foster

आहर्यते

{

आहर्य्

}

-

Aharyate

{

Ahary

}

-

verb

-

foster

उपकुरुते

{

उपकृ

}

-

upakurute

{

upakR

}

-

verb

-

foster

परिहरति

{

परिहृ

}

-

pariharati

{

parihR

}

-

verb

-

foster

परिहरते

{

परिहृ

}

-

pariharate

{

parihR

}

-

verb

-

foster

भरते

{

भृ

}

-

bharate

{

bhR

}

-

verb

-

foster

भरति

{

भृ

}

-

bharati

{

bhR

}

-

verb

-

foster

भर्ति

{

भृ

}

-

bharti

{

bhR

}

-

verb

-

foster

बिभर्ति

{

भृ

}

-

bibharti

{

bhR

}

-

verb

-

foster

बिभृते

{

भृ

}

-

bibhRte

{

bhR

}

-

verb

-

foster

सचनस्यते

{

सचनस्य

}

-

sacanasyate

{

sacanasya

}

-

verb

-

foster

सेवते

{

सेव्

}

-

sevate

{

sev

}

-

verb

-

foster

पोषति

{

पुष्

}

-

poSati

{

puS

}

-

verb

1

-

foster

लडयति

{

लड्

}

-

laDayati

{

laD

}

-

verb

10

-

foster

उपकरोति

{

उप-

कृ

}

-

upakaroti

{

upa-

kR

}

-

verb

8

-

foster

अनुबध्नाति

{

अनु-

बन्ध्

}

-

anubadhnAti

{

anu-

bandh

}

-

verb

9

-

foster

पुष्यति

{

पुष्

}

-

puSyati

{

puS

}

-

verb

9

-

foster

पुष्णाति

{

पुष्

}

-

puSNAti

{

puS

}

-

verb

9

-

foster

वर्दयति

{

वृध्

}

-

vardayati

{

vRdh

}

-

verb

caus.

-

foster

धात्री

dhAtrI

Feminine

midwife

उपसूतिका

upasUtikA

Feminine

midwife

गर्भग्राहिका

garbhagrAhikA

Feminine

midwife

कुलभृत्या

kulabhRtyA

Feminine

midwife

ग्राहिका

grAhikA

Feminine

midwife

वृद्धयुवति

vRddhayuvati

Feminine

midwife

साविका

sAvikA

Feminine

midwife

कुमारभृत्या

kumArabhRtyA

Feminine

midwifery

गर्भिण्यवेक्षण

garbhiNyavekSaNa

Neuter

midwifery

बालतन्त्र

bAlatantra

Neuter

midwifery

प्रजननकुशल

prajananakuzala

Adjective

skilled

in

midwifery

अभिसावकीयति

{

अभिसावकीय

}

abhisAvakIyati

{

abhisAvakIya

}

verb

long

for

a

midwife

or

a

young

offspring

Apte English

धात्री

[

dhātrī

],

1

A

nurse,

wet-nurse,

fostermother

उवाच

धात्र्या

प्रथमोदितं

वचः

Raghuvamsa (Bombay).

3.25

Kumârasambhava (Bombay).

7.25.

A

mother

Yâjñavalkya (Mr. Mandlik's Edition).

3.82

सुविचार्य

गुणान्

दोषान्

कुर्याद्

धात्रीं

तदेदृशीम्

Bhāva.

Parasmaipada.

The

earth

सद्यस्तनं

परिमलं

परिपीय

धात्र्याः

Rām.

Ch.5.5.

The

tree

called

आमलक.

Compound.

पुत्रः

a

fosterbrother.

an

actor.

-पुष्पिका

Name.

of

a

tree

(

धव

).

-फलम्

An

Āmalaka

fruit.

Apte 1890 English

धात्री

1

A

nurse,

wet-nurse,

fostermother

उवाच

धात्र्या

प्रथमोदितं

वचः

R.

3.

25

Ku.

7.

25.

2

A

mother

Y.

3.

82.

3

The

earth.

4

The

tree

called

आमलक.

Comp.

पुत्रः

{1}

a

foster-brother.

{2}

an

actor.

फलं

An

Āmalaka

fruit.

Monier Williams Cologne English

धात्री

feminine.

‘female

supporter’,

a

nurse,

mahābhārata

kāvya literature

et cetera.

midwife,

hitopadeśa

iv,

61

mother,

yājñavalkya

iii,

82

the

earth,

varāha-mihira

mahābhārata

harivaṃśa

et cetera.

Emblica

Officinalis,

varāha-mihira

suśruta

(

some

derive

it

from.

धे

confer, compare.

धायस्

and

pāṇini

iii,

2,

181

).

Monier Williams 1872 English

धात्री,

f.

See

under

2.

धातु,

col.

3.

धात्री,

f.

a

wet-nurse,

foster-mother,

nurse,

mother

the

earth

Emblica

Myrobalan,

Emblica

Officinalis.

—धात्री-पुत्र,

अस्,

m.

the

son

of

a

nurse,

a

foster-brother

an

actor

(

a

various

reading

for

धर्मी-पुत्र।

)

—धात्री-फल,

अम्,

n.

the

fruit

of

the

Emblic

Myrobalan.

धात्री

धात्री।

See

2.

धातु,

p.

453,

col.

3.

Macdonell English

धात्री

dhā-trī,

Feminine.

nurse

midwife

waiting-woman

🞄mother

earth.

Benfey English

धात्री

धात्री,

i.

e.

धे

+

तृ

+

ई,

Feminine.

1.

A

mother,

Yājñ.

3,

82.

2.

A

nurse,

Rām.

1,

40,

18

Gorr.

3.

A

waiting-

woman,

Chr.

52,

15.

4.

The

earth,

MBh.

11,

215.

5.

Emblica

officinalis

Gaertn.

,

Myrobalane,

Suśr.

1,

162,

10.

Hindi Hindi

(

स्त्री

)

नर्स

Apte Hindi Hindi

धात्री

स्त्रीलिङ्गम्

-

धात्र

+

ङीप्

"दाई,

धाय,

उपमाता"

धात्री

स्त्रीलिङ्गम्

-

धात्र

+

ङीप्

माता

धात्री

स्त्रीलिङ्गम्

-

धात्र

+

ङीप्

पृथ्वी

धात्री

स्त्रीलिङ्गम्

-

धात्र

+

ङीप्

आँवले

का

वृक्ष

Shabdartha Kaustubha Kannada

धात्री

पदविभागः

स्त्रीलिङ्गः

कन्नडार्थः

धातृ

ಪದದ

ಸ್ತ್ರೀಲಿಂಗ

ರೂಪ

निष्पत्तिः

स्त्रियां

"ङीप्"(

४-१-५

विस्तारः

"धाता

वेधसि

पालके"

-

हेम०

"धाता

हिरण्यगर्भे

स्यात्

पालके

त्वभिधेयवत्"

-

विश्व०

"धाता

धर्तरि

ना

विधौ"

-

नानार्थर०

धात्री

पदविभागः

स्त्रीलिङ्गः

कन्नडार्थः

ತಾಯಿ

/ಜನನಿ

निष्पत्तिः

डुधाञ्

(

धारणपोषणयोः

)

-

कर०

"ष्ट्रन्"

(

उ०

४-१५८

)

व्युत्पत्तिः

धीयन्ते

पुरुषार्थाः

अनया

प्रयोगाः

"पुनर्धात्रीं

पुनर्गर्भमोजस्तस्य

प्रधावति"

उल्लेखाः

याज्ञ०

३-८२

धात्री

पदविभागः

स्त्रीलिङ्गः

कन्नडार्थः

ದಾದಿ

/ಉಪಮಾತೆ

/ಸಾಕು

ತಾಯಿ

निष्पत्तिः

धेट्

(

पाने

)

-

कर्म०

"ष्ट्रन्"

(

उ०

४-१५८

)

व्युत्पत्तिः

धीयते

पीयते

प्रयोगाः

"धात्र्यङ्गुलीभिः

प्रतिसार्यमाणमुर्णामयं

कौतुकहस्तसूत्रम्"

उल्लेखाः

कुमा०

७-२५

धात्री

पदविभागः

स्त्रीलिङ्गः

कन्नडार्थः

ಭೂಮಿ

व्युत्पत्तिः

दधाति

विश्वम्

धात्री

पदविभागः

स्त्रीलिङ्गः

कन्नडार्थः

ಆಮಲಕವೃಕ್ಷ

/ನೆಲ್ಲಿ

ಮರ

प्रयोगाः

"धात्री

वत्स

नृणां

धात्री

मातृवत्

कुरुते

दयाम्

दद्यात्

आयुः

पयः

पानात्

स्नानाद्वै

धर्मसञ्चयम्

अलक्ष्मीनाशनं

सद्योऽप्यन्ते

निर्वाणमेव

विघ्नानि

नैव

जायन्ते

धात्रीस्नानेन

वै

नृणाम्

तस्मात्

त्वं

कुरु

विप्रेन्द्र

धात्रीस्नानं

हि

यत्नतः

॥"

L R Vaidya English

DAtrI

{%

f.

%}

1.

A

nurse,

a

wet-nurse,

a

foster-mother,

उवाच

धात्र्या

प्रथमोदितं

वचः

R.iii.25,

K.S.vii.25

2.

the

earth

3.

mother,

Yaj.iii.82

4.

the

āmalaka

tree.

Bopp Latin

धात्री

f.

(

r.

धा

vel

धे

s.

तृ

cum

signo

fem.

)

nutrix.

N.

8.

4.

13.

49.

Anekartha-Dvani-Manjari Sanskrit

सुधा

स्त्री

सुधा,

प्रासादभाग्द्रव्य,

विद्युत्,

अमृत,

भोजन,

धात्री,

स्नुही

सुधा

प्रासादभाग्द्रव्यं

सुधा

विद्युत्सुधामृतम्

सुधैव

भोजनं

ज्ञेयं

सुधा

धात्री

सुधा

स्नुही

४३

verse

1.1.1.43

page

0003

धात्री

स्त्री

धात्री,

धातकी,

आमलकी,

वसुन्धरा,

स्तनदायिनी

धातकी

प्रोच्यते

धात्री

धात्री

चालमकी

मता

धात्री

वसुन्धरा

ज्ञेया

धात्री

स्यात्

स्तनदायिनी

६७

verse

1.1.1.67

page

0005

Indian Epigraphical Glossary English

dhātrī

(

IE

7-1-2

),

‘one’.

Kridanta Forms Sanskrit

धे

(

धे॒ट्

पाने

-

भ्वादिः

-

अनिट्

)

ल्युट् →

धानम्

अनीयर् →

धानीयः

-

धानीया

ण्वुल् →

धायकः

-

धायिका

तुमुँन् →

धातुम्

तव्य →

धातव्यः

-

धातव्या

तृच् →

धाता

-

धात्री

क्त्वा →

धीत्वा

ल्यप् →

प्रधाय

क्तवतुँ →

धीतवान्

-

धीतवती

क्त →

धीतः

-

धीता

शतृँ →

धयन्

-

धयन्ती

धा

(

डुधा॒ञ्

धारणपोषणयोः

दान

इत्यप्येके

-

जुहोत्यादिः

-

अनिट्

)

ल्युट् →

धानम्

अनीयर् →

धानीयः

-

धानीया

ण्वुल् →

धायकः

-

धायिका

तुमुँन् →

धातुम्

तव्य →

धातव्यः

-

धातव्या

तृच् →

धाता

-

धात्री

क्त्वा →

हित्वा

ल्यप् →

प्रधाय

क्तवतुँ →

हितवान्

-

हितवती

क्त →

हितः

-

हिता

शतृँ →

दधत्

/

दधद्

-

दधती

शानच् →

दधानः

-

दधाना

Wordnet Sanskrit

Synonyms

पृथिवी,

भूः,

भूमिः,

अचला,

अनन्ता,

रसा,

विश्वम्भरा,

स्थिरा,

धरा,

धरित्री,

धरणी,

क्षौणी,

ज्या,

काश्यपी,

क्षितिः,

सर्वसहा,

वसुमती,

वसुधा,

उर्वी,

वसुन्धरा,

गोत्रा,

कुः,

पृथ्वी,

क्ष्मा,

अवनिः,

मेदिनी,

मही,

धरणी,

क्षोणिः,

क्षौणिः,

क्षमा,

अवनी,

महिः,

रत्नगर्भा,

सागराम्बरा,

अब्धिमेखला,

भूतधात्री,

रत्नावती,

देहिनी,

पारा,

विपुला,

मध्यमलोकवर्त्मा,

धारणी,

गन्धवती,

महाकान्ता,

खण्डनी,

गिरिकर्णिका,

धारयित्री,

धात्री,

अचलकीला,

गौः,

अब्धिद्वीपा,

इडा,

इडिका,

इला,

इलिका,

इरा,

आदिमा,

ईला,

वरा,

आद्या,

जगती,

पृथुः,

भुवनमाता,

निश्चला,

श्यामा

(Noun)

मर्त्याद्यधिष्ठानभूता।

"पृथिवी

पञ्चमम्

भूतम्"

Synonyms

धातुपुष्पिका,

सुभिक्षा,

अग्निज्वाला,

वह्निपुष्पी,

ताम्रपुष्पी,

धावनी,

पार्वती,

धातकी,

बहुपुष्पिका,

कुसुदा,

सीधुपुष्पी,

कुञ्जरा,

मद्यवासिनी,

गुच्छपुष्पी,

सन्धपुष्पी,

रोध्रपुष्पिणी,

तीव्रज्वाला,

वह्निशिखा,

मद्यपुष्पा,

धातृपुष्पी,

धातुपुष्पी,

धातृपुष्पिका,

धात्री,

धातुपुष्पिका

(Noun)

औषधोपयोगी

वृक्षविशेषः।

"धातुपुष्पिका

उन्नता

सुन्दरा

भवति।"

Synonyms

क्षीरधात्री,

धात्रेयिका,

धात्री,

धात्रेयिकायी

(Noun)

सा

धात्री

या

दुग्धं

पाययति।

"क्षीरधात्री

शिशुं

दुग्धं

पाययति।"

Synonyms

धात्री,

उपसूतिका,

गर्भग्राहिका,

कुलभृत्या,

साविका

(Noun)

प्रसवकाले

या

सहायतां

करोति

सा

स्त्री।

"इदानींतने

काले

ग्रामेषु

धात्रीभ्यः

सर्वकारद्वारा

प्रशिक्षणं

दीयते।"

Synonyms

धात्री,

ग्राहिका,

कुलभृत्या

(Noun)

सा

स्त्री

या

प्रसूतायाः

उपचाराणि

तथा

सुश्रुषां

करोति।

"चिकित्सकेन

प्रसूतायाः

अवेक्षणार्थे

धात्री

नियुक्ता।"

Synonyms

धात्री,

अङ्कपाली,

उपमाता,

कुलभृत्या,

दोग्ध्री,

क्षीरधात्री,

धन्या,

धात्रिका,

धात्रेयिका,

धात्रेयिकायी,

मातृका,

वर्धापिका

(Noun)

व्यवसायविशेषः-

का

अपि

स्त्री

उपजीविकार्थे

स्वामिनः

शिशून्

स्वं

दुग्धं

पाययित्वा

पोषयति

तथा

तेभ्यः

कौटुम्बिकान्

आचारान्

पाठयति।

"मातुः

वियोगात्

धात्री

एव

श्यामं

पर्यपालयत्।"

Synonyms

आमलकी,

तिष्यफला,

अमृता,

वयस्था,

वयःस्था,

कायस्था,

श्रीफला,

धात्रिका,

शिवा,

शान्ता,

धात्री,

अमृतफला,

वृष्या,

वृत्तफला,

रोचनी,

कर्षफला,

तिष्या

(Noun)

फलवृक्षविशेषः

यस्य

फलानि

औषधरूपेण

उपयुज्यन्ते।

"झञ्जावाते

अस्य

आमलकेः

एका

शाखा

भग्ना।"

Tamil Tamil

தா4த்ரீ

:

வளர்ப்புத்

தாய்,

செவிலித்தாய்,

பூமி,

நெல்லிமரம்.

Amarakosha Sanskrit

धात्री

स्त्री।

भूमिः

समानार्थकाः

भू,

भूमि,

अचला,

अनन्ता,

रसा,

विश्वम्भरा,

स्थिरा,

धरा,

धरित्री,

धरणि,

क्षोणि,

ज्या,

काश्यपी,

क्षिति,

सर्वंसहा,

वसुमती,

वसुधा,

उर्वी,

वसुन्धरा,

गोत्रा,

कु,

पृथिवी,

पृथ्वी,

क्ष्मा,

अवनि,

मेदिनी,

मही,

विपुला,

गह्वरी,

धात्री,

गो,

इला,

कुम्भिनी,

क्षमा,

भूतधात्री,

रत्नगर्भा,

जगती,

सागराम्बरा,

इडा,

भूत,

इरा,

रोदस्,

रोदसी

2।1।3।3।3

सर्वंसहा

वसुमती

वसुधोर्वी

वसुन्धरा।

गोत्रा

कुः

पृथिवी

पृथ्वी

क्ष्मावनिर्मेदिनी

मही॥

विपुला

गह्वरी

धात्री

गौरिला

कुम्भिनी

क्षमा।

भूतधात्री

रत्नगर्भा

जगती

सागराम्बरा।

अवयव

==>

भूरन्ध्रम्,

मृद्

==>

अतिनिम्नप्रदेशः,

कुमुदयुक्तदेशः,

सर्वसस्याढ्यभूमिः,

निर्जलदेशः,

हलाद्यकृष्टभूमिः,

शरावत्याः_अवधेः_प्राग्दक्षिणदेशः,

शरावत्याः_अवधेः_पश्चिमोत्तरदेशः,

भारतस्य_पश्चिमसीमाप्रदेशः,

भारतभूमेः_मध्यदेशः,

विन्ध्यहिमाद्रिमध्यदेशः,

नडाधिकदेशः,

कुमुदबहुलदेशः,

बहुवेदसदेशः,

बालतृणबहुलदेशः,

सपङ्कदेशः,

जलाधिकदेशः,

अश्मप्रायमृदधिकदेशः,

वालुकाबहुलदेशः,

सिकतायुक्तदेशः,

नद्यम्बुभिः_सम्पन्नदेशः,

वृष्ट्यम्बुभिः_सम्पन्नदेशः,

स्वधर्मपरराजयुक्तदेशः,

सामान्यराजयुक्तदेशः,

नद्यादिसमीपभूमिः,

पाषाणादिनिबद्धा_भूः,

गृहरचनापरिच्छिन्नदेशः,

गृहरचनावच्छिन्नवास्तुभूमिः,

ग्रामादिसमीपदेशः,

पर्वतः,

मेखलाख्यपर्वतमध्यभागः,

पर्वतसमभूभागः,

अद्रेरधस्थोर्ध्वासन्नभूमिः,

यागार्थं_संस्कृतभूमिः,

स्वभूमिः,

पर्वतादयः,

विजनः,

अश्वेन_दिनैकाक्रमणदेशः,

भयङ्करयुद्धभूमिः,

प्रेतभूमिः,

यज्ञे_स्तावकद्विजावस्थानभूमिः,

ऊषरदेशः,

देशः,

जन्मभूमिः

पदार्थ-विभागः

,

द्रव्यम्,

पृथ्वी

धात्री

स्त्री।

उपमाता

समानार्थकाः

धात्री

3।3।177।1।1

धात्री

स्यादुपमातापि

क्षितिरप्यामलक्यपि।

क्षुद्रा

व्यङ्गा

नटी

वेश्या

सरघा

कण्टकारिका॥

पदार्थ-विभागः

,

द्रव्यम्,

पृथ्वी,

चलसजीवः,

मनुष्यः

धात्री

स्त्री।

आमलकी

समानार्थकाः

तिष्यफला,

आमलकी,

अमृता,

वयःस्था,

धात्री

3।3।177।1।1

धात्री

स्यादुपमातापि

क्षितिरप्यामलक्यपि।

क्षुद्रा

व्यङ्गा

नटी

वेश्या

सरघा

कण्टकारिका॥

पदार्थ-विभागः

,

द्रव्यम्,

पृथ्वी,

अचलसजीवः,

वृक्षः

Kalpadruma Sanskrit

धात्री,

स्त्रीलिङ्गम्

(

धीयते

पीयते

इति

धेट

पाने

+“सर्व्वधातुभ्यः

ष्ट्रन्

।”

उणां

१५८

इतिकर्म्मणि

ष्ट्रन्

षित्वात्

ङीष्

अस्या

स्तनदुग्ध-पानात्तथात्वम्

यद्वा,

दधाति

धरतीति

धा+

तृच्

+

ङीप्

)

माता

(

यथा,

याज्ञवल्क्य-सहितायाम्

८२

।“पुनर्धात्रीं

पुनर्गर्भमोजस्तस्य

प्रधावति

।अष्टमे

मास्यतो

गर्भो

जातः

प्राणैर्विमुच्यते

)उपमाता

(

यथा,

रघुः

१०

७८

।“कुमाराः

कृतसंस्कारास्ते

धात्रीस्तनपायिनः

।आन्दनेनाग्रजेनेव

समं

ववृधिरे

पितुः

”(

कुमाररक्षाकर्त्री

धाइ

इति

भाषा

तस्यापरीक्षा

यथा,

“अतो

धात्रीपरीक्षामुपदेक्ष्यामः

।अथ

ब्रूयात्

धात्रीमानयेति

समानवर्णां

यौव-नस्थां

निभृतामनातुरामव्यङ्गामव्यसनामवि-रूपामजुगुप्सितां

देशजातीयामक्षुद्रां

अक्षुद्र-कर्म्मिणीं

कुले

जातां

वत्सलां

जीववत्सां

पुंवत्सांदोग्ध्रीमप्रमत्तामशायिनीमनुच्चारशायिनीमन-न्तावशायिनीं

कुशलोपचारां

शुचिमशुचि-द्वेषिणीं

स्तन्यसम्पदुपेतामिति

।”“धात्री

तु

यदा

स्वादुबहुलशुद्धदुग्धा

स्यात्तदास्नातानुलिप्ता

शुक्लवस्त्रं

परिधायैन्द्रीं

ब्राह्मींशतवीय्या

सहस्रवीर्य्यां

मोधामव्यथां

शिवा-मरिष्टां

वाट्यपुष्पीं

विष्वक्सेनकान्तामिति

बिभ्र-त्यौषधीः

कुमारं

प्राङ्मुखं

प्रथमं

दक्षिणं

स्तनंपाययेदिति

धात्रीकर्म्म

।”

इति

चरके

शारीर-स्थानेऽष्टमेऽध्याये

*

(

दधाति

धारयति

सर्व्व-मिति

धा

+

तृच्

+

ङीप्

)

क्षितिः

(

गायत्त्री-स्वरूपिणी

भगवती

यथा,

देवीभागवते

१२

।६

७८

।“धात्रीधनुर्धरा

धेनुर्धारिणी

धर्म्मचारिणी

”गङ्गा

यथा,

काशीखण्डे

२९

९२

।“धर्म्मोर्म्मिवाहिनी

धुर्य्या

धात्री

धात्रीविभूषणम्

)आमलकीवृक्षः

इति

मेदिनी

रे,

४९

(

अस्याः

पर्य्याया

यथा,

वैद्यकरत्नमालायाम्

।“धात्री

कर्षफला

तिष्या

वयस्थामलकी

शिवा

)अथ

धात्र्याद्युत्पत्तिकारणम्

।वृन्दामरणान्मुग्धस्य

विष्णोर्मोहापनोदाय

रुद्र-वाक्यादाद्यां

शक्तिं

स्तुवतो

देवान्

प्रति

सा

आह

।“अहमेतत्त्रिधा

भिन्ना

तिष्ठामि

त्रिविधैर्गुणैः

।गौरी

लक्ष्मीः

स्वधा

चेति

रजःसत्त्वतमोगुणैः

तत्र

गत्वा

तथा

कार्य्यं

विधास्यन्ते

ताः

सुराः

।तास्तथा

तान्

सुरान्

दृष्ट्वा

प्रणतान्

भक्तवत्-सलाः

बीजानि

प्रददुस्तेभ्यो

वाक्यानि

जगदुस्तदा

।इमानि

देवा

बीजानि

विष्णुर्यत्रावतिष्ठते

निर्वपध्वं

ततः

कार्य्यं

भवतां

सिद्धिमेष्यति

।क्षिप्तेभ्यस्तत्र

बीजेभ्यो

वनस्पत्यः

स्त्रियोऽभवन्

धात्री

मालती

चैव

तुलसी

नृपोत्तम

!

।धात्र्युद्भवा

स्मृता

धात्री

माभवा

मालती

स्मृता

गौरीभवा

तुलसी

तमःसत्त्वरजोगुणाः

।स्त्रीरूपिण्यो

वनस्पत्यो

दृष्ट्वा

विष्णुस्तदा

नृप

!

उत्तस्थौ

सम्भ्रमाद्वृन्दारूपातिशयविभ्रमात्

”अस्या

माहात्म्यं

यथा,

--“शृणुष्व

धात्रीमाहात्म्यं

सर्व्वपापहरं

शुभम्

।यत्

पुरा

हरिणा

प्रोक्तं

वशिष्ठं

प्रति

नारद

!

धात्री

वत्स

!

नृणां

धात्री

मातृवत्

कुरुते

कृपाम्

।दद्यादायुः

पयः

पानं

स्नानाद्वै

धर्म्मसञ्चयम्

अलक्ष्मीनाशनं

सद्योऽप्यन्ते

निर्व्वाणमेवच

।विघ्नानि

नैव

जायन्ते

धात्रीस्नानेन

वै

नृणाम्

तस्मात्

त्वं

कुरु

विप्रेन्द्र

!

धात्रीस्नानं

हि

यत्नतः

।प्रयास्यसि

हरेर्धाम

देवत्वं

प्राप्य

नारद

!

यत्र

यत्र

मुनिश्रेष्ठ

!

धात्रीस्नानं

समाचरेत्

।तीर्थे

वापि

गृहे

वापि

तत्र

तत्र

श्रियः

स्थिताः

धात्रीस्नातानि

दिवसे

यस्यास्थीनि

कलेवरे

।प्रक्षालितानि

विप्रेन्द्र

!

स्याद्गर्भसम्भवः

धात्रीफलेन

विप्रेन्द्र

!

येषां

केशाश्च

रञ्जिताः

।ते

नराः

केशवं

यान्ति

नाशयित्वा

कलेर्मलम्

धात्रीफलं

महापुण्यं

स्नाने

पुण्यतरं

स्मृतम्

।पुण्यात्

पुण्यतरं

वत्स

!

भक्षणे

मुनिपुङ्गव

!

गङ्गा

गया

पुण्या

काशी

पुष्करम्

।एकैव

यथा

पुण्या

धात्री

माधववासरे

कार्त्तिके

मासि

विप्रेन्द्र

!

धात्रीस्नानं

समाचरेत्

।यश्च

तज्जलमश्नीयात्

सोऽश्वमेधमवाप्नुयात्

धात्रीफलं

स्मरेद्यस्तु

सदैव

मुनिसत्तम

!

।प्राग्जन्मनि

कृतात्

पापात्

मुच्यते

नात्र

संशयः

।संस्मरेद्यस्तु

धात्रीं

तामहन्यहनि

मानवः

मुच्यते

पातकैः

सर्व्वैर्मनोवाक्कायसम्भवैः

धात्रीफलान्यमावास्यामष्टमीनवमीषु

।रविवारे

संक्रान्तौ

संस्मरेन्मुनिपुङ्गव

!

यस्य

गेहे

मुनिश्रेष्ठ

!

धात्री

तिष्ठति

सर्व्वदा

।तस्य

गेहं

गच्छन्ति

प्रेतकुष्माण्डराक्षसाः

धात्रीस्नाने

हरेर्नाम्नि

जागरे

हरिवासरे

।जन्मबन्धो

विनश्येत

हयमेधायुतं

फलम्

स्नायादामलकैर्यस्तु

कार्त्तिके

हरिवत्सल

!

।परितोषं

समायाति

तस्य

वै

माधवः

स्वयम्

धात्रीच्छायां

समासाद्य

कुर्य्यात्

श्राद्धस्तु

योमुने

!

।मुक्तिं

प्रयान्ति

पितरः

प्रसादात्तस्य

वै

हरेः

मूर्द्ध्नि

पाणौ

मुखे

कण्ठे

देहे

मुनिसत्तम

!

।धत्ते

धात्रीफलं

यस्तु

महात्मा

पुण्यभाक्

धात्रीफलविलिप्ताङ्गो

धात्रीफलविभूषितः

।धात्रीफलकृताहारो

नरो

नारायणो

भवेत्

यः

कश्चिद्वैष्णवो

लोके

धत्ते

धात्रीफलं

मुने

!

।प्रियो

भवति

विष्णोः

मनुष्याणाञ्च

का

कथा

धात्रीफलानि

यो

नित्यं

वहते

करसंपुटे

।तस्य

नारायणो

देवो

वरमेकं

प्रयच्छति

धात्रीफलं

मोक्तव्यं

कदाचित्

करसंपुटात्

।य

इच्छेद्विपुलान्

भोगानन्ते

यो

मुक्तिमिच्छति

धात्रीफलकृतां

मालां

कण्ठस्थां

यो

वहेन्न

हि

।स

वैष्णवो

विज्ञेयो

विष्णुभक्तिपरोऽपि

त्याज्या

तुलसीमाला

धात्रीमाला

विशेषतः

।तथा

रुद्राक्षमालापि

धर्म्मकामार्थमिच्छता

यावल्लुठति

कण्ठस्था

धात्रीमाला

नरस्य

हि

।तावन्मनसि

हृत्स्थोऽपि

सदा

लुठति

केशवः

यावद्दिनानि

वहते

धात्रीमालां

करे

नरः

।तावद्युगसहस्राणि

वैकुण्ठे

वसतिर्भवेत्

सर्व्वदेवमयी

धात्री

वासुदेवमनःप्रिया

।आरोपणीया

सेव्या

सेचनीया

सदा

बुधैः

एतत्ते

सर्व्वमाख्यातं

धात्र्या

माहात्म्यमुत्तमम्

।श्रोतव्यञ्च

सदा

सद्भिश्चतुर्वर्गफलप्रदम्

”इति

पाद्मोत्तरखण्डे

१२७

अध्यायः

अपि

।“तुलसीवृक्षमाश्रित्य

या

यास्तिष्ठन्ति

देवताः

।आमलक्या

अपि

प्राज्ञ

!

तास्ता

एव

वसन्ति

अशुभं

वा

शुभं

वापि

यत्

कर्म्मामलकीतले

।क्रियते

मानवैर्विप्र

!

भवेत्तत्

सर्व्वमक्षयम्

पवित्रैर्नूतनैः

पत्रैर्धात्र्या

यः

पूजयेद्धरिम्

।स

मुक्तः

पापजालेन

सायुज्यं

लभते

हरेः

धात्री

तुलसी

देवी

तिष्ठेद्यत्र

जैमिने

!

।स्थानं

तदपवित्रं

स्यान्न

पुण्यक्रिया

फलेत्

धात्र्या

हीनं

तुलस्या

निलयं

यस्य

भूसुर

!

।अलक्ष्मीः

पातकं

सर्व्वं

कलिश्च

तेन

तोषितः

धात्रीकाष्ठस्य

मालाञ्च

यो

वहेन्मतिमान्नरः

।तत्

सर्व्वमक्षयं

प्रोक्तं

शुभं

वाशुभमेव

वा

यस्तु

धात्रीफलं

भुङ्क्ते

मानवोऽखिलतत्त्व-वित्

।तद्देहाभ्यन्तरस्थायि

सर्व्वं

पापं

विनश्यति

धात्रीफलमयीं

मालां

वहते

द्विजसत्तमः

।ब्रवीमि

शृणु

माहात्म्यं

सर्व्वपापहरं

शुभम्

श्मशानेऽपि

यदा

मृत्युस्तस्य

स्याद्दैवयोगतः

।गङ्गामरणजं

पुण्यं

प्राप्नोति

संशयः

नित्यं

गृह्णाति

यो

धात्रीतुलसीमूलकर्द्दमम्

।दिने

दिने

लभेत्

पुण्यं

सोऽश्वमेधशतोद्भवम्

धात्रीतरुञ्च

यो

हन्ति

सर्व्वदेवगणाश्रयम्

।स

ददाति

हरेरङ्गे

धातं

नास्त्यत्र

संशयः

सर्व्वदेवमयी

धात्री

विशेषात्

केशवप्रिया

।सम्यग्वक्तुं

गुणं

तस्या

ब्रह्मणापि

शक्यते

”इति

क्रियायोगसारे

२३

अध्यायः

यथा

स्कान्दे

।“न

धात्री

सफला

यत्र

विष्णोस्तुलसीदलम्

।तं

म्लेच्छदेशं

जानीयात्

यत्र

नायान्ति

वैष्णवाः

)इत्येकादशीतत्त्वम्

अय

धात्रीसेचनफलम्

।“पिता

पितामहाश्चान्ये

अपुत्त्रा

ये

गोत्रिणः

।वृक्षयोनिं

गता

ये

ये

कीटत्वमागताः

रौरवे

नरके

ये

महारौरवसंज्ञके

।वियोनिञ्च

गता

ये

ये

ब्रह्माण्डमध्यगाः

पिशाचत्वं

गता

ये

ये

प्रेतत्वमागताः

ते

पिबन्तु

मया

दत्तं

धात्रीमूले

सदा

पयः

ते

सर्व्वे

तृप्तिमायान्तु

धात्रीमूलनिषेचनात्

इति

धात्रीं

चाभिषिच्य

वारानष्टोत्तरं

शतम्

।ताञ्च

प्रदक्षिणीकृत्य

कुर्य्याज्जागरणं

व्रती

जागरणन्तु

प्रक्रान्तव्रतविषयम्

।”

इति

श्रीहरि-भक्तिविलासे

१३

विलासः

Vachaspatyam Sanskrit

धात्री

स्त्री

धीयते

पीयते

धेट--कर्मणि

ष्ट्रन्

धीयन्ते

पुरुषार्थाअनया

वा

धा--करणे

ष्ट्रन्,

विश्वं

वा

दधाति

ष्ट्रन्

षित्त्वात्ङीष्

तृच्

ङीप्

वा

उपमातरि

(

धाइमा

)

।भावप्र०

धात्रीलक्षणादि

“पीताय

(

पानाय

)

यदि

बालस्यविदध्यादुपमातरम्

सुविचार्य्यगुणान्

दोषान्

कुर्य्याद्धात्रींततेदृशीम्

सवर्णां

मध्यवयसां

सच्छीलां

मुदितां

सदा

।शुद्धदुग्धाम्बहुक्षीरां

सवत्सामतिवत्सलाम्

स्वाधीना-मल्पसन्तुष्टां

कुलीनां

सज्जनात्मजाम्

कैतवेनापरि-त्यक्तां

निजपुत्रदृशं

शिशौ

अथ

निषिद्धां

धात्रीमाह

।शोकाकुला

क्षुधार्त्ता

श्रान्ता

ध्याधिमती

सदा

।अत्युच्चानितरां

नीचा

स्थूलातीव

भृशंकृशा

गर्भिणीज्वरिणी

चापि

लम्बोन्नतपयोधरा

अजीर्णभोजिनीचापि

तथा

पथ्यविवर्जिता

आसक्ता

क्षुद्रकार्य्ये

तुदुःस्वार्त्ता

चञ्चलापि

एतासां

स्तन्यपानेन

शिशु-र्भवति

सामयः

अथ

बालस्य

स्तन्यपानविधिः

तत्रमाता

प्रशस्ताङ्गी

चारुवस्त्रा

पुरोमुखी

उपविश्या-सने

सम्यग्दक्षिणं

स्तनमम्बुना

प्रक्षाल्येषत्

परिस्राव्यमन्त्राभ्यामभिमन्त्रितम्

उदङ्मुखं

शिशुं

क्रोडे

शनैःसन्धार्य्य

पाययेत्

मातेत्युपलक्षणं

धात्री

ईषत्-परिस्राव्य

अन्यथा

वैगुण्यमाह

सुश्रुतः

अस्रावितंस्तनं

बालः

पिबन्

स्तन्येन

भूयसा

पूर्णस्रोता

वमीकास-श्वासैर्भवति

पीडितः

अभिमन्त्रणमाह

क्षीरनोर-निधिस्तेऽस्तु

स्तनयोः

क्षीरपूरकः

सदैव

सुभगो

बालोभवत्येष

महाबलः

पयोऽमृतसमं

पीत्वा

कुमारस्तेशुभानने

दीर्घमायुरवाप्नोतु

देवाः

प्राप्यामृतं

यथा

।मन्त्रौ

पितृस्थानेन

व्राह्मणेन

पठनीयौ

यावत्

मन्त्रपाठस्ताबन्मात्रा

धात्र्या

वा

दक्षिणहस्तेन

स्पर्शः

कार्य्यः”“उवाच

धात्र्या

प्रथमोदितं

वचः”

रघुः

“धात्र्य-ङ्गुलीभिः

प्रतिसार्य्यमाणः”

कुमा०

क्षितौ

तस्याविश्वधारणात्

“मेखलेव

स्थिता

धात्र्या

देवासुर-विभागकृत्”

सू०

सि०

धारणकत्त्र्यां

स्त्रियां

।३

आमलक्यां

मेदि०

तस्याः

धारणादेः

पुरुषार्थ-साधनत्वात्

तथात्वम्

आमलकीशब्दे

७६४

पृ०

तद्गुणाउक्ताः

तस्या

उत्पत्तिर्माहात्म्यञ्च

पाद्मोत्तरख०

१२७अ०

उक्तं

यथा

“अथ

क्षिप्तेभ्यो

वीजेभ्यो

वनस्पत्यः

स्त्रियो-ऽभवन्

धात्री

मालती

चैव

तुलसी

नृपोत्तम!

।स्वधामवा

स्मृता

धात्री

माभवा

मालती

तथा

गौरी-भवा

तुलसी

तमःसत्त्वरजोगुणा”स्थानान्तरे

तत्रैवतन्माहात्म्यं

यथा“शृणुष्व

धात्रीमाहात्म्यं

सर्वपापहरं

शुभम्

यत्पुरा

हरिणा

प्रोक्तं

वशिष्ठं

प्रति

नारद!

धात्री

वत्स!नृणां

धात्री

मातृवत्

कुरुते

कृपाम्

दद्यादायुः

पयःपानात्

स्नानाद्वै

धर्मसञ्चयम्

अलक्ष्मीनाशनं

सद्यो-ऽप्यन्ते

निर्वाणमेव

विघ्नानि

नैव

जायन्ते

धात्री-स्नानेन

वै

नृणाम्

तस्मात्

त्वं

कुरु

विप्रेन्द्र!

धात्री-स्नानं

हि

यत्नतः

प्रयास्यसि

हरेर्धाम

देवत्वं

प्राप्य-नारद!

यत्र

यत्र

मुनिश्रेष्ठ!

धात्रीस्नानं

समाचरेत्

।तीर्थे

वापि

गृहे

वापि

तत्र

तत्र

श्रियः

स्थिताः

धात्री-स्नातानि

दिवसे

यस्यास्थीनि

कलेवरे

प्रक्षालितानिविप्रेन्द्र!

स्याद्गर्भसम्भवः

धात्रीफलेन

विप्रेन्द्र!येषां

केशाश्च

रञ्जिताः

ते

नराः

केशवं

यान्ति

नाश-यित्वा

कलेर्मलम्

धात्रीफलं

महापुण्यं

स्नाने

पुण्य-तरं

स्मृतम्

पुण्यात्

पुण्यतरं

वत्स!

भक्षणे

मुनि-पुङ्गव!

गङ्गा

गया

पुण्या

काशी

चपुष्करम्

एकैव

यथा

पुण्या

धात्री

माधववासरे

।कार्त्तिके

मासि

विप्रेन्द्र!

धात्रीस्नानं

समाचरेत्

यश्चतज्जलमश्नीयात्

सोऽश्वमेधमवाप्नुयात्

धात्रीफलंस्मरेद्यस्तु

सदैव

मुनिसत्तम!

प्राग्जन्मनि

कृतात्

पा-पात्

मुच्यते

नात्र

संशयः

संस्मरेद्यस्तु

धात्रीं

तामह-न्यहनि

मानवः

मुच्यते

पातकैः

सर्वैर्मनोवाक्वायस-म्भवैः

धात्रीफलान्यमावास्यामष्टमीनबमौषु

रवि-वारे

संक्रान्तौ

संस्मरेन्

मुनिपुङ्गव!

यस्य

गेहेमुनिश्रेष्ठ!

धात्री

तिष्ठति

सर्वदा

तस्य

गेहं

ग-च्छन्ति

प्रेतकुष्माण्डराक्षसाः

धात्रीस्नाने

हरेर्नाम्निजागरे

हरिवासरे

जन्मबन्धो

विनश्येत

हयमेधा-युतं

फलम्

स्नायादामलकैर्यस्तु

कार्त्तिके

हरिवत्सल!

।परितोषं

समायाति

तस्य

वै

माधवः

स्वयम्

धात्री-च्छायां

समासाद्य

कुर्य्यात्

श्राद्धन्तु

यो

मुने!

मुक्तिंप्रयान्ति

पितरः

प्रसादात्तस्य

वै

हरेः

मूर्ध्नि

पाणौमुखे

कण्ठे

देहे

मुनिसत्तम!

धत्ते

धात्रीफलं

यस्तुस

महात्मा

पुण्यभाक्

धात्रीफलविलिप्ताङ्गोधात्रीफलविभूषितः

धात्रीफलकृताहारो

नरो

नारा-यणो

भवेत्

यः

कश्चिद्वैष्णवो

लोके

धत्ते

धात्रीफलंमुने!

प्रियो

भवति

विष्णोः

मनुष्याणाञ्च

का

कथा

।धात्रीफलानि

यो

नित्यं

वहते

करसंपुटे

तस्य

नारा-यणो

देवो

वरमेकं

प्रयच्छति

धात्रीफलं

मोक्तव्यंकदाचित्

करसंपुटात्

इच्छेद्विपुलान्

भोगानन्तेयो

मुक्तिमिच्छति

धात्रीफलकृतां

मालां

कण्ठस्थांयो

वहेन्न

हि

वैष्णवो

विज्ञेयो

विष्णुभक्तिपरोऽपि

त्याज्या

तुलसीमाला

धात्रीमाला

वि-शेषतः

तथा

रुद्राक्षमालापि

धर्मकामार्थमिच्छता

।यावल्लुठति

कण्ठस्था

धात्रीमाला

नरस्य

हि

ताव-न्मनसि

हृत्स्थोऽपि

सदा

लुठति

केशवः

यावद्दिनानिवहते

घात्रीमालां

करे

नरः

तावद्युगसहस्राणि

वै-कुण्ठे

वसतिर्भवेत्

सर्वदेवमयी

धात्री

वासुदेवमनः-प्रिया

आरोपणीया

सेव्या

सेचनीया

सदा

बुधैः

।एतत्ते

सर्वमाख्यातं

धात्र्या

महात्म्यमुत्तमम्

श्रोत-व्यञ्च

सदा

सद्भिश्चतुर्वर्गफलदम्”

अधिकमामलकीशब्देदृश्यम्

जनन्यां

विश्वः

“पुनर्धात्रीं

पुनर्गर्भमोजस्तस्यप्रधायति”

याज्ञ०

KridantaRupaMala Sanskrit

1

{@“डु

धाञ्

धारणपोषणयोः”@}

2

3

‘डु

धाञ्

दानधारणयोः’

इति

क्षीरस्वामी।

निरुक्ते

4

“रत्नधात-

मम्

=

रमणीयानां

धनानां

दातृतमम्।”

इति

विवरणमप्यत्रैवानुकूलतया

दृश्यते।

मैत्रैयरक्षितप्रभृतिभिरस्य

धातोर्दानार्थत्वमष्यङ्गीकृतम्।

]

]

‘घेटो

धयति

पानार्थे,

धाञो

धत्ते

दधात्यपि।’

5

इति

देवः।

6

धायकः-यिका,

7

धापकः-पिका,

8

धित्सकः-त्सिका,

9

देधीयकः-यिका

धाता-धात्री,

धापयिता-त्री,

धित्सिता-त्री,

देधीयिता-त्री

10

प्रणिदधत्-दधती,

धापयन्-न्ती,

धित्सन्-न्ती

--

धास्यन्-न्ती-ती,

धापयिष्यन्-न्ती-ती,

धित्सिष्यन्-न्ती-ती

--

11

प्रणिदधानः,

धापयमानः,

धित्समानः,

देधीयमानः

धास्यमानः,

धापयिष्यमाणः,

धित्सिष्यमाणः,

देधीयिष्यमाणः

रत्नधाः-धौ-धाः

--

--

--

12

हितम्-

13

प्रणिहितः-हितवान्,

धापितः,

धित्सितः,

देधीयितः-तवान्

14

15

प्रधः,

16

दधः

17,

18

धायः,

19

किष्किन्धा

20,

21

धामा,

22

धीवा-धीवरी,

बहुधीवरी,

23

शिरोधिः-विधिः,

प्रणिधिः,

बालधिः

24

-उपाधिः,

25

भूतधात्री,

26

श्रद्धालुः,

27

28

विधेयः,

29

विधाता,

धापः,

धित्सुः,

30

दाधाः

31

धातव्यम्,

धापयितव्यम्,

धित्सितव्यम्,

देधीयितव्यम्

प्रणिधानीयम्,

धापनीयम्,

धित्सनीयम्,

देधीयनीयम्

धेयम्,

32

धाय्या

33

34

धाप्यम्,

धित्स्यम्,

देधीय्यम्

ईषद्धानम्-दुर्धानम्-सुधानम्

--

--

--

35

धीयमानः,

धाप्यमानः,

धित्स्यमानः,

देधीय्यमानः

36

धात्री,

37

उपधिः-निधिः,

38

अन्तर्धिः-

39

उदधिः

सन्धिः-

40

सुषन्धिः-दुष्षन्धिः,

41

दधि

42

धायः,

43

हित्रिमम्

44

धापः,

धित्सः,

देधीयः

धातुम्,

धापयितुम्,

धित्सितुम्,

देधीयितुम्

हितिः,

45

अभिधा-

46

श्रद्धा,

47

उपधा,

धापना,

धित्सा,

देधीया

प्रणिधानम्-अपिधानम्-

48

पिधानम्,

धापनम्,

धित्सनम्,

देधीयनम्

हित्वा,

धापयित्वा,

धित्सित्वा,

देधीयित्वा

49

प्रधाय-निधाय,

प्रधाप्य,

प्रधित्स्य,

प्रदेधीय्य

50

घृतनिधायं

निहितं

51,

52

गोत्राभिधायम्,

53

धायम्

२,

हित्वा

२,

धापम्

२,

धापयित्वा

२,

धित्सम्

२,

धित्सित्वा

२,

देधीयम्

देधीयित्वा

54

तुन्प्रत्यये

रूपम्।

दधात्यर्थम्,

धीयतेऽस्मिन्नर्थ

इति

वा

धातुः

=

शब्दप्रकृतिः,

पर्वतनिस्रावो

वा।

]

]

धातुः,

55

इति

कूप्रत्ययान्तो

निपातितः।

एवं

शकन्धूरपि।

धातव्याऽसौ

इति

दिधिषूः।

अस्यैव

धातोः

कूप्रत्यये

द्विर्वचनम्,

षुगागम

इत्वं

निपात्यन्ते।

]

]

कर्कन्धूः-शकन्धूः-दिधिषूः,

56

आनकप्रत्यये

रूपम्।

धानकः

=

सुवर्णपरिमाणम्।

]

]

धानकः,

57

क्युप्रत्यये

रूपम्।

निधनम्

=

विनाशः।

बाहुलकाद्

धनमित्यपि

क्युप्रत्यय

एव

बोध्यः।

]

]

निधनम्-धनम्,

58

59

इति

नप्रत्यये

रूपम्।

धीयन्ते

यासां

विकारैः

प्राणिन

इति

धानाः

=

यवविकाराः।

]

]

धानाः,

60

इति

यन्प्रत्यये

नुडागमो

विधीयते।

]

]

धान्यम्,

61

इति

क्रन्प्रत्यये

ईत्वे

रूपम्।

दधाति

आपत्सु

चित्तमिति

धीरः

=

सत्त्ववान्।

]

]

धीरः,

62

इति

विपूर्वाद्धाञोऽसिप्रत्ययः,

वेध

इति

इत्ययं

चादेशः।

विदधाति

प्रजाः

इति

वेधाः

=

ब्रह्मा।

]

]

वेघाः,

63

इत्येभिः

असिप्रत्ययो

विधीयते।

डिच्चायम्,

तेन

टेर्लोपः।

वयोधाः

=

प्राणी

चन्द्रश्च।

पयोधाः

=

समुद्रः।

पुरोधाः

=

उपाध्यायः।

]

]

वयोधाः-पुरोधाः।

प्रासङ्गिक्यः

01

(

८९५

)

02

(

३-जुहोत्यादिः-१०९२-सक।

अनि।

उभ।

)

03

[

[

[

]

04

(

७-१५

)

05

(

श्लो।

)

06

[

[

१।

ण्वुलि,

‘आतो

युक्

चिण्कृतोः’

(

७-३-३३

)

इति

युगागमः।

एवं

घञि

णमुल्प्र-

भृतिष्वपि

ज्ञेयम्।

]

]

07

[

[

२।

ण्यन्तात्

ण्वुलि,

आदन्तलक्षणः

पुगागमः।

ण्यन्ते

सर्वत्र

एवमेवेति

ज्ञेयम्।

]

]

08

[

[

३।

‘दाधा

ध्वदाप्’

(

१-१-२०

)

इति

घुसंज्ञायाम्

‘सनि

मीमाघु--’

(

७-४-५४

)

इत्यादिना

सन्नन्ते

आकारस्य

इस्।

‘सः

स्यार्धधातुके’

(

७-४-४९

)

इति

सकारस्य

तकारे,

‘अत्र

लोपोऽभ्यासस्य’

(

७-४-५८

)

इत्यभ्यासलोपः।

‘इको

झल्’

(

१-२-९

)

इति

सनः

कित्त्वान्न

गुणः।

एवं

सन्नन्ते

सर्वत्र

प्रक्रिया

ज्ञेया।

]

]

09

[

[

४।

यङन्ताण्ण्वुलि,

‘घुमास्था--’

(

६-४-६६

)

इत्यादिना

ईत्वे,

द्विर्वचनादिकम्।

अभ्यासे

गुणः।

यङन्ते

सर्वत्रैवमेव।

]

]

10

[

[

५।

शतरि,

‘जुहोत्यादिभ्यः--’

(

२-४-७५

)

इति

शपः

श्लुः।

‘श्लौ’

(

६-१-१०

)

इति

द्विर्वचनम्।

‘श्नाऽभ्यस्तयोरातः’

(

६-४-११२

)

इत्याकारलोपः।

‘नेर्गदनदपतपदघुमा--’

(

८-४-१७

)

इत्यादिना

उपसर्गस्थान्निमित्तात्

परस्य

नेः

णत्वम्।

‘नाभ्यस्ताच्छतुः’

(

७-१-७८

)

इति

नुम्निषेधः।

]

]

11

[

[

आ।

‘अस्रावि

भूमिपतिभिः

क्षणवीतनिद्रैरश्नन्

पुरो

हरितकं

मुदमादधानः।’

शि।

व।

५।

५८।

]

]

12

[

[

६।

निष्ठायाम्,

‘दधातेर्हिः’

(

७-४-४२

)

इति

प्रकृतेः

हिः

आदेशः।

एवं

तकारादौ

किति

प्रत्यये

सर्वत्र

(

क्त्वा,

क्तिन्प्रभृतिषु

)

ज्ञेयम्।

]

]

13

[

[

B।

‘ततः

प्रणिहितः

स्वार्थे

राक्षसेन्द्रं

बिभीषणः।।’

भ।

का।

९।

९९।

]

]

14

[

पृष्ठम्०७९०+

३२

]

15

[

[

१।

‘आतश्चोपसर्गे’

(

३-१-१३६

)

इति

कर्तरि

कप्रत्ययः।

]

]

16

[

[

२।

‘ददातिदधात्योर्विभाषा’

(

३-१-१३९

)

इति

शप्रत्यये,

शित्त्वात्

शपि,

तस्य

श्लौ,

द्विर्वचने,

शप्रत्ययस्य

सार्वधातुकत्वेन

‘श्नाऽभ्यस्तयोः--’

(

६-४-११२

)

इत्या-

कारलोपे

दधः

इति

रूपम्।

]

]

17

[

[

आ।

‘नभस्स्पृगूर्मिस्तितरीषतोऽस्य

हरे

दधस्यैकपदीमदात्

सः।।’

वा।

वि।

३।

३८।

]

]

18

[

[

३।

दधातेरस्य

शप्रत्ययस्य

विभाषितत्वात्

पक्षे,

‘श्याऽऽद्व्यध--’

(

३-१-१४१

)

इत्यादिना

कर्तरि

णप्रत्यये,

युगागमे

धायः

इति

रूपम्।

]

]

19

[

[

४।

किं

किं

दधातीत्यर्थे

‘आतोऽनुपसर्गे

कः’

(

३-२-३

)

इति

कर्मण्युपपदे

कर्तरि

कप्रत्यये,

‘पारस्करप्रमृतीनि

च’

(

६-१-१५७

)

इति

सुडागमे,

किमो

मकारस्य

लोपः

षत्वं

भवति।

]

]

20

[

[

B।

‘किष्किन्धाद्रिसदात्यर्थं

निष्पिष्टः

कोष्णमुच्छ्वसन्।।’

भ।

का।

६।

१२१।

]

]

21

[

[

५।

‘अन्येभ्योऽपि

दृश्यन्ते’

(

३-२-७५

)

इति

निरुपपदादस्मात्

मनिन्प्रत्यये

रूपम्।

]

]

22

[

[

६।

‘अन्येभ्योऽपि

दृश्यन्ते’

(

३-२-७५

)

इति

निरुपपदादस्मात्

क्वनिप्प्रत्यये,

ईत्वे,

रूपम्।

स्त्रियाम्,

‘वनो

च’

(

४-१-७

)

इति

ङीब्रेफौ।

बहुधीवा

बहुधीवरी

इत्यत्र

तु

‘अनो

बहुव्रीहेः’

(

४-१-१२

)

इति

निषेधात्

ङीबभावः,

‘डाबुभाभ्या-

मन्यतरस्याम्’

(

४-१-१३

)

इति

पाक्षिकः

ङीप्

रेफः

डाप्

भवति।

]

]

23

[

[

७।

शिरो

धत्ते

इति

शिरोधिः

=

ग्रीवा।

बाहुलकात्

कर्तरि

किप्रत्यये,

‘आतो

लोप

इटि

च’

(

६-४-६४

)

इत्याकारलोपः।

केचित्तु

शिरो

धीयते

अस्यामिति

विगृह्य

‘कर्मण्यधिकरणे

च’

(

३-३-९३

)

इति

किप्रत्यये

निष्पादयन्ति।

विधिः,

प्रणिधिः

इत्यादिषु

तु

कर्तर्येव

किप्रत्ययः

बाहुलकात्।

]

]

24

[

[

C।

‘आनिन्यिरे

श्रेणिकृतास्तथाऽन्यैः

परस्परं

चालधिसंनिबद्धाः।।’

भ।

का।

११।

४२।

]

]

25

[

[

८।

भूतानि

धत्ते

इति

भूतधात्री

=

पृथिवी।

बाहुलकात्

कर्तरि

ष्ट्रन्प्रत्यये,

स्त्रियां

षित्त्वात्

ङीष्।

]

]

26

[

[

९।

तच्छीलादिषु

कर्तृषु

‘स्पृहिगृहिपतिदयिनिद्रातन्द्राश्रद्धाभ्य

आलुच्’

(

३-२-१५८

)

इत्यालुच्प्रत्ययः।

]

]

27

[

[

ड्।

‘श्रद्धालुर्भ्रातुरङ्गानि

चन्दनेष्वप्यरोचकी।।’

अनर्घराघबे।

७।

१४३।

]

]

28

[

[

१०।

‘अर्हे

कृत्यतृचश्च’

(

३-३-१६९

)

इति

कर्तरि

यत्प्रत्ययः।

‘ईद्यति’

(

६-४-६५

)

इति

धातोरीत्वे

गुणः।

]

]

29

[

[

११।

विदधातीति

विधाता

=

ब्रह्मा।

‘तृन्’

(

३-२-१३५

)

ताच्छीलिकस्तृन्प्रत्ययः।

]

]

30

[

[

१२।

यङन्तात्

पचाद्यचि

यङो

लुकि

ईत्वाभावे,

अभ्यासे

‘दीर्घोऽकितः’

(

७-४-८३

)

इति

दीर्घः।

]

]

31

[

पृष्ठम्०७९१+

२७

]

32

[

[

१।

सामिधेनीरूपऋत्विग्विशेषवाचित्वे

सति,

‘पाय्यसान्नाय्यनिकाय्यधाय्या

मानह-

विर्निवाससामिधेनीषु’

(

३-१-१२९

)

इत्यनेन

ण्यत्

आयादेशश्च

निपात्येते।

‘धाय्येति

सर्वा

सामिधेन्युच्यते,

किं

तर्हि?

काचिदेव।

रूढिशब्दो

ह्ययम्।

तथा

असामिधेन्यामपि

दृश्यते--

‘धाथ्याः

शंसत्यग्निर्नेता

त्वं

सोमक्रतुभिः।’

इति

काशिकाऽत्रानुसन्धेया।

‘सामिधेन्यभिधास्वृक्षु

काचिद्धाय्येति

कथ्यते।

शस्त्रादिष्वपि

धाय्याऽस्ति

तेनैतदुपलक्षणम्।।’

इति

प्रक्रियासर्वस्व

श्लोकोऽ-

प्यत्रानुसन्धेयः।

]

]

33

[

[

आ।

‘मदनानलबोधने

भवेत्

खग,

धाय्या

धिगधैर्यधारिणः।।’

नैषधे।

२।

५९।

]

]

34

[

ऋक्

]

35

[

[

२।

यगन्ताच्छानचि,

‘घुमास्था--’

(

६-४-६६

)

इतीत्वम्।

]

]

36

[

[

३।

धीयते

=

धार्यते

शिरसीति

धात्री

=

आमलकी।

‘धः

कर्मणि

ष्ट्रन्’

(

३-२-१८१

)

इति

ष्ट्रन्प्रत्ययः।

षित्त्वात्

स्त्रियां

ङीष्।

]

]

37

[

[

४।

‘उपसर्गे

घोः

किः’

(

३-३-९२

)

इति

किप्रत्यये

आकारलोपे

रूपम्।

एवं

निधिरित्यादिष्वपि

ज्ञेयम्।

]

]

38

[

[

५।

‘अन्तश्शब्दस्य

अङ्किविधिणत्वेषूपसर्गत्वं

वाच्यम्’

(

वा।

१-४-६५

)

इत्युप-

सर्गसंज्ञायां

किप्रत्यये

रूपम्।

एवं

अन्तर्धा

अन्तर्णिधानम्

इत्यत्रापि

अङ्-

विधौ

णत्वविधौ

चोपसर्गत्वं

ज्ञेयमन्तश्शब्दस्य।

]

]

39

[

[

६।

उदकं

धीयतेऽत्रेति

उदधिः

=

समुद्रः।

‘कर्मण्यधिकरणे

च’

(

३-३-९३

)

इति

अधिकरणे

किप्रत्ययः।

‘उदकस्योदः

संज्ञायाम्’

(

६-३-५७

)

इति

उदक-

शब्दस्य

उदभावः।

असंज्ञायां

तु

‘पेषंवासवाहनधिषु

च’

(

६-३-५८

)

इति

उदभावः--इति

विशेषः।

]

]

40

[

[

७।

सुषामादित्वात्

(

८-३-९८

)

सुषन्धिः

दुष्षन्धिः

इत्यत्र

षत्वम्।

]

]

41

[

[

८।

‘भाषायां

धाञ्--’

(

वा।

३-२-१७१

)

इत्यादिना

किः

किन्

वा

प्रत्ययः।

तस्य

लिड्वद्भावातिदेशात्

द्विर्वचनादिकं

भवति।

]

]

42

[

पृष्ठम्०७९२+

३२

]

43

[

[

१।

‘ड्वितः

क्त्रिः’

(

३-३-८८

)

इति

क्त्रिप्रत्यये,

तेन

निवृत्तम्

इत्यर्थे,

‘क्त्रेर्मम्नि-

त्यम्’

(

४-४-२०

)

इति

मप्प्रत्यये,

हिभावे

रूपमेवम्।

]

]

44

[

[

आ।

‘निष्ठां

गते

दत्त्रिमसभ्यतोषे

विहित्रिमे

कर्मणि

राजपत्न्यः।’

भ।

का।

१।

१३।

]

]

45

[

[

२।

‘आतश्चोपसर्गे’

(

३-३-१०६

)

इत्यङ्।

]

]

46

[

[

३।

‘श्रढन्तरोरुपसर्गवद्वृत्तिः’

(

वा।

१-४-५९

)

इति

वचनादुपसर्गभावेऽङ्।

]

]

47

[

[

B।

‘चिन्तावन्तः

कथां

चक्रुरुपधामेदभीरवः।’

भ।

का।

७।

७४।

]

]

48

[

[

४।

अपिपूर्वकात्

धाञो

ल्युटि

‘वष्टि

भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः।’

इति

वचनात्

अपिघटिताकारस्य

लोपे

पिधानम्

इति

भवति।

अन्येषां

मते

तु

अपिघानम्

इत्येव।

]

]

49

[

[

५।

‘न

ल्यपि’

(

६-४-६९

)

इतीत्वनिषेधः।

‘अन्तरङ्गानपि

विधीन्

बहिरङ्गो

लुग्

बाधते’

(

परिभाषा

५३

)

इति

न्यायात्

पूर्वमेव

ल्यपः

प्रवृत्त्या

तादिकितोऽभावात्

प्रकृतर्हिरादेशः।

]

]

50

[

[

६।

‘उपमाने

कर्मणि

च’

(

३-४-४५

)

इति

णमुलि

युगागमे,

अस्यः

कषादित्वात्

‘कषादिषु

यथाविध्यनुप्रयोगः’

(

३-४-४६

)

इति

पूर्वप्रयुक्तधातोरनुप्रयोगः।

]

]

51

[

जलम्

]

52

[

[

७।

‘द्वितीयायां

च’

(

३-४-५३

)

इति

णमुल्।

अत्र

सूत्रे

पूर्वसूत्रात्

‘परीप्सायाम्’

इति

नानुवर्तते

इति

पदमञ्जर्यादौ

स्पष्टम्।

]

]

53

[

[

C।

{??}

दित्वा

करुणं

सशब्दे

गोत्रभिवायं

सरितं

समेत्य।’

भ।

का।

३।५०।

]

]

54

[

[

८।

औणादिके

[

द।

उ।

१-१२२

]

55

[

[

९।

कर्क

दधातीति

कर्कन्धूः

=

बदरीवृक्षः।

‘अन्दूदृम्भूजम्बूकफेलूकर्कन्धूदिधिषूः’

[

द।

उ।

१।

१७६

]

56

[

[

१०।

औणादिके

[

द।

उ।

३-२७

]

57

[

[

११।

निपूर्वकादस्मात्

औणादिके

[

द।

उ।

५।

२६

]

58

[

पृष्ठम्०७९३+

२३

]

59

[

[

१।

‘धापृ--’

[

द।

उ।

५-३९

]

60

[

[

२।

‘दधातेर्यन्

नुट्

च’

[

द।

उ।

८।

१९

]

61

[

[

३।

‘सुसूधा--’

[

द।

उ।

८-४२

]

62

[

[

४।

‘विधाञो

वेध

च’

[

द।

उ।

९-८४

]

63

[

[

५।

‘वयसि

धाञः’,

‘पयसि

च’

‘पुरसि

च’

[

द।

उ।

९-८९-९०-९१

]

1

{@“धेट्

पाने”@}

2

‘धेटो

धयति

पानार्थे,

धाञो

धत्ते

दधात्यपि।’

3

इति

देवः।

4

5

धायकः-यिका,

6

धापकः-पिका,

7

धित्सकः-त्सिका,

8

देधीयकः-यिका

9

प्रणिधाता-त्री,

धापयिता-त्री,

धित्सिता-त्री,

देधीयिता-त्री

10

प्रणिधयन्-न्ती,

11

धापयन्-न्ती,

धित्सन्-न्ती

--

प्रणिधास्यन्-न्ती-ती,

धापयिष्यन्-न्ती-ती,

धित्सिष्यन्-न्ती-ती

--

--

धापयमानः,

धापयिष्यमाणः,

--

देधीयमानः,

देधीयिष्यमाणः

12

धाः-धौ-धाः

--

--

--

13

धीतम्-धीतः-धीतवान्,

धापितः,

धित्सितः,

देधीयितः-तवान्

14

उद्धयः

15

-धयः,

16

नासिकन्धयः-

17

स्तनन्धयः,

स्तनन्धयी,

18

नाडिन्धयः-

19

20

मुष्टिन्धयः,

21

शुनिन्धयः,

22

घटिन्धयः-खारिन्धयः-खरिन्धयः-

23

वातन्धयः,

24

धारुः,

25

26

धात्री,

27

पुष्पन्धयः,

28

मुञ्जन्धयः-कूलन्धयः-आस्यन्धयः,

29

क्षीरधाः,

धापः,

धित्सुः,

देध्यः

धातव्यम्,

धापयितव्यम्,

धित्सितव्यम्,

देधीयितव्यम्

प्रणिधानीयम्,

धापनीयम्,

धित्सनीयम्,

देधीयनीयम्

प्रणिघेयम्,

धाप्यम्,

धित्स्यम्,

देधीय्यम्

30

ईषद्धानः-दुर्धानः-सुधानः

--

--

धायः,

31

सन्धिः,

धापः,

धित्सः,

देधीयः

धातुम्,

धापयितुम्,

धित्सितुम्,

देधीयितुम्

32

धीतिः,

33

सुधा,

धापना,

धित्सा,

देधीया

धयनम्,

धापनम्,

धित्सनम्,

देधीयनम्

धीत्वा,

धापयित्वा,

धित्सित्वा,

देधीयित्वा

प्रधाय,

प्रधाप्य,

प्रधित्स्य,

प्रदेधीय्य

धायम्

धीत्वा

धापम्

धापयित्वा

धित्सम्

धित्सित्वा

देधीयम्

देधीयित्वा

34

धेनुः।

प्रासङ्गिक्यः

01

(

९२२

)

02

(

१-भ्वादिः-९०२।

सक।

अनि।

पर।

)

03

(

श्लो।

)

04

[

पृष्ठम्०८१२+

२५

]

05

[

[

१।

‘आदेच

उपदेशेऽशिति’

(

६-१-४५

)

इत्यात्त्वे,

‘आतो

युक्

चिण्कृतोः’

(

७-३-३३

)

इति

युगागमः।

एवं

घञि

णमुल्यपि

ज्ञेयम्।

]

]

06

[

[

२।

ण्यन्ते

सर्वत्र

आत्त्वे,

आदन्तलक्षणः

पुगागमो

ज्ञेयः।

]

]

07

[

[

३।

धारूपत्वेनास्य

धुसंज्ञकत्वात्,

‘सनि

मीमाघु--’

(

७-४-५४

)

इत्यादिना

इस्।

‘अत्र

लोपोऽभ्यासस्य’

(

७-४-५८

)

इत्यभ्यासलोपः।

‘सः

स्यार्धधातुके’

(

७-४-४९

)

इति

तकारः।

एवं

सन्नन्ते

सर्वत्र

प्रक्रिया।

]

]

08

[

[

४।

यङन्ते

सर्वत्र,

‘घुमास्था--’

(

६-४-६६

)

इत्यादिना

ईत्वे,

अभ्यासे

गुणः।

]

]

09

[

[

५।

‘नेर्गदनदपतपदघु--’

(

८-४-१७

)

इत्यादिना

नेर्णत्वम्।

]

]

10

[

[

६।

शतरि,

‘एचोऽयवायावः’

(

६-१-७८

)

इत्ययादेशः।

]

]

11

[

[

७।

‘न

पादम्याङ्--’

(

१-३-८९

)

इत्यत्र,

‘धेट

उपसंख्यानम्’

(

वा।

१-३-८९

)

इति

वचनात्

उभयपदित्वमस्य

\n\n

तेन

ण्यन्तात्

शतृशानचौ।

]

]

12

[

[

८।

क्विपि,

आत्त्वे

रूपमेवम्।

]

]

13

[

[

९।

निष्ठायाम्,

‘घुमास्था--’

(

६-४-६६

)

इति

ईत्त्वे,

रूपम्।

एवम्,

क्त्वाप्रमृति-

ष्वपि

ज्ञेयम्।

]

]

14

[

[

१०।

सोपसृष्टात्,

निरुपसृष्टादपि,

‘पाघ्राध्माधेद्दृशः

शः’

(

३-१-१३७

)

इति

शप्रत्यये,

शित्त्वेन

सार्वधातुकत्वात्

शप्प्रत्यये,

पररूपे,

अयादेशे

रूपमेवम्।

केचित्तु

निरुपसृष्टादेवायं

प्रत्यय

इति

साधयन्ति।

]

]

15

[

[

आ।

‘ध्वनीनामुद्धमैरेभिर्मधूनामुद्धयैर्मृशम्।’

भ।

का।

६।

७८।

]

]

16

[

[

११।

‘नासिकास्तनयोर्घ्माघेटोः’

(

३-२-२९

)

इति

खश्प्रत्ययः।

‘खित्यनव्ययस्य’

(

६-३-६६

)

इति

ह्रस्वः,

‘अरुर्द्विषदजन्तस्य--’

(

६-३-६७

)

इति

मुम्।

घेटष्टि-

त्त्वात्

अवयवेऽचरितार्थस्य

टित्करणस्य

समुदाय

उपयोगात्

स्त्रियां

ङीप्।

]

]

17

[

[

B।

‘सत्त्वमेजयसिंहाढ्यान्

स्तनन्धयसमत्विषौ।’

भ।

का।

६।

९५।

]

]

18

[

[

१२।

‘नाडीमुष्ट्योश्च’

(

३-२-३०

)

इति

खशू।

पूर्ववत्

मुम्।

]

]

19

[

पृष्ठम्०८१३+

२८

]

20

[

[

आ।

‘किमत्र

बहुना

भजद्भवपयोधिमुष्टिन्धयः

त्रिविक्रम

भवत्क्रमः

क्षिपतु

मङ्क्षु

रङ्गद्विषः।।’

अभीतिस्तवे

२७।

]

]

21

[

[

१।

‘खश्प्रकरणे--वातशुनीतिलशर्धेषु

अजघेट्तुदजहातीनां

खश

उपसंख्यानम्’

(

वा।

३-२-२८

)

इति

वार्तिकात्

खश्।

‘खित्यनव्ययस्य’

(

६-३-६६

)

इति

ह्रस्वः।

]

]

22

[

[

२।

‘घटीखारीखरीषु--’

(

वा।

३-२-३०

)

इति

खश्।

वार्तिकमिदं

भाष्ये

दृश्यते।

‘नाडीमुष्ट्योश्च’

(

३-२-३०

)

इत्यत्र

विद्यमानश्चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः

इति

मत्वा

सिद्धान्तकौमुद्यादिषूक्तः

स्यात्।

]

]

23

[

[

३।

अत्रापि,

बाहुलकात्

खश्।

वातन्धयः

=

सर्पः।

]

]

24

[

[

४।

‘दाधेट्सिशदसदो

रुः’

(

३-२-१५९

)

इति

ताच्छीलिको

रुप्रत्ययः।

]

]

25

[

[

B।

‘श्रद्धालुं

भ्रामरं

धारुं

सद्रुमद्रौ

वद

द्रुतम्।।’

भ।

का।

७।

२१।

]

]

26

[

[

५।

‘धः

कर्मणि

ष्ट्रन्’

(

३-२-१८१

)

इति

कर्मण्यर्थे

ष्ट्रन्।

षित्त्वात्

स्त्रियां

ङीष्।

‘तत्र

बाला

धयन्त्येनामिति

धात्र्युपमातरि।

भैषज्यार्थं

दधत्येनामिति

स्यादामलक्यपि।।’

इति

प्र।

सर्वस्वे।

]

]

27

[

[

६।

पुष्पशब्द

उपपदे

धातोरस्य

खश्प्रत्ययविधानाभावात्

पृषोदरादित्वेन

वा,

‘नाडी-

मुष्ट्योश्च’

(

३-२-३०

)

इत्यत्र

अनुक्तसमुच्चयार्थकचकारेण

वा

साधुत्वमिति

ज्ञेयम्।

एवमेव

मुञ्जन्धय

इत्यादिष्वपि।

पुष्पन्धयः

=

भ्रमरः।

कूलन्धयः

=

नदी-

वेगः।

मुञ्जन्धयः

=

क्रिमिविशेषः।

आस्यन्धयः

=

कामुकः।

]

]

28

[

[

C।

‘चक्राङ्गीमदपश्यतोहरचलच्छम्पासमुन्मेषणः

पुष्पत्केतकगन्धसिन्धुविलुठत्पुष्पन्धयान्धीकृतैः।’

च।

भारते

३।

५३।

]

]

29

[

[

७।

क्षीरं

धयतीति

क्षीरधाः।

‘आतो

मनिन्--’

(

३-२-७४

)

इति

विट्।

]

]

30

[

[

८।

‘आतो

युच्’

(

३-३-१२८

)

इति

ईषदाद्युपपदेषु

खलपवादो

युच्।

]

]

31

[

[

९।

‘उपसर्गे

घोः

किः’

(

३-३-९२

)

इति

किप्रत्यये,

‘आतो

लोप

इटि

च’

(

६-४-६४

)

इत्याकारलोपे

रूपमेवम्।

]

]

32

[

पृष्ठम्०८१४+

२५

]

33

[

[

१।

‘आतश्चोपसर्गे’

(

३-३-१०६

)

इति

स्त्रियामङ्।

]

]

34

[

[

२।

‘धेट

इच्च’

(

द।

उ।

१-१४५

)

इति

नुप्रत्यये

इकारश्चान्तादेशः।

धेनुः

=

नवप्रसू-

ता

गौः।

]

]

Capeller German

धात्री

s.

धातर्.

Stchoupak French

धात्री-

Feminine.

(

mère

),

nourrice,

mère

adoptive

sage-femme

terre.

°कर्मन्-

nt.

office

de

mère

adoptive.