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चण्डी (caNDI)

 
Shabda Sagara English

चण्डी

Feminine.

(

-ण्डी

)

DURGA:

see

चण्ड.

चण्ड-वह्वा-वा

ङीष्

Yates English

चण्डी

(

ण्डी

)

3.

Feminine.

Durgā.

Spoken Sanskrit English

चण्डी

caNDI

Feminine

passionate

woman

चण्डी

caNDI

Feminine

term

of

endearment

applied

to

a

mistress

चण्डी

caNDI

Feminine

vixen

चण्डी

caNDI

Feminine

metre

of

4

x

13

syllables

Wilson English

चण्डी

Feminine.

(

-ण्डी

)

DURGĀ.

see

चण्ड.

Monier Williams Cologne English

च॑ण्डी

a

feminine.

(

g.

बह्व्-आदि

)

a

passionate

woman,

vixen,

Horace H. Wilson

a

term

of

endearment

applied

to

a

mistress,

Horace H. Wilson

nalopākhyāna

of

Durgā,

mahābhārata

vi,

797

harivaṃśa

10233

kathāsaritsāgara

xi

of

a

female

attendant

of

Durgā

of

Uddālaka's

wife,

jaimini-bhārata, āśvamedhika-parvan

xxiv,

1

a

short

nalopākhyāna

of

the

devī-māhātmya

a

metre

of

4

×

13

syllables

(

confer, compare.

उच्-,

प्र-

अ-चण्डी,

चाण्ड.

)

1.

चण्डी

indeclinable, either an indeclinable participle or an adverb or a case used adverbially.

2.

चण्डी

feminine.

of

°ड,

q.v.

Chandas Sanskrit

सम-वृत्तम्,

अक्षराणि →

52,

पादेऽक्षराणि →

13

मात्राः →

16

सङ्ख्याजातिः

-

अतिजगती

मात्रा-विन्यासः

दा

दा

दा

लक्षण-मूलम् →

आनन्दमिश्र-जालक्षेत्रम्

Apte Hindi Hindi

चण्डी

स्त्रीलिङ्गम्

-

-

दुर्गा

का

विशेषण

चण्डी

स्त्रीलिङ्गम्

-

-

"आवेशयुक्त,

या

क्रोधी

स्त्री"

Shabdartha Kaustubha Kannada

चण्डी

पदविभागः

स्त्रीलिङ्गः

कन्नडार्थः

ಪಾರ್ವತಿ

/ದುರ್ಗಾದೇವಿ

निष्पत्तिः

चण्ड

-

वा

"ङीष्"

(

४-१-४५

)

चण्डी

पदविभागः

स्त्रीलिङ्गः

कन्नडार्थः

ಕೋಪವುಳ್ಳ

ಹೆಂಗಸು

प्रयोगाः

"सा

किलाश्वासिता

चण्डी

भर्त्रा

तत्संश्रुतौ

वरौ"

उल्लेखाः

रघु०

१२-५

चण्डी

पदविभागः

स्त्रीलिङ्गः

कन्नडार्थः

ಉದ್ದಾಲಕನ

ಪತ್ನಿ

L R Vaidya English

caMqI

{%

f.

%}

1.

An

epithet

of

Durgā

2.

a

passionate

lady,

हंतैकस्मिन्

क्वचिदपि

ते

चंडि

सादृश्यमस्ति

Megh.ii.41,

R.xii.5.

Bopp Latin

चण्डी

f.

(

a

चण्ड

signo

fem.

)

1

)

irata

v.

चण्ड.

2

)

co-

gnomen

Durgae.

Aufrecht Catalogus Catalogorum English

चण्डी

or

चण्डिका

See

Devīmāhātmya.

देवीमाहात्म्य

or

चण्डी

or

चण्डीमाहात्म्य

or

दुर्गामाहात्म्य

or

सप्तशती

(

q.v.

),

from

Mārkaṇḍeyapurāṇa.

Mack.

73.

Pet.

723.

IO.

88.

W.

p.

141.

Oxf.

43^b.

44^a.

Cambr.

2.

3.

Paris

(

D

26.

27^a.

27^b.

255.

).

Tüb.

14.

Rādh

26.

39.

41.

NW.

498.

Burnell

192^b.

197^a.

203^b.

P.

9.

Bhk.

15.

Poona

II,

96.

216.

H.

36.

Taylor

1,

59.

109.

154.

286.

484.

Oppert

1466.

2182.

2619.

3797.

4550.

6000.

6804.

7441.

II,

124.

2431.

2489.

2690.

4653.

5462.

6305.

6769.

7593.

7958.

8454.

10043.

Rice

84.

86

(

and

C.

).

300.

Peters.

1,

115.

2,

196.

C.

Pheh

2.

Burnell

197^b.

Oppert

2620.

BP.

294.

C.

Daṃśoddhāra.

Rādh

26.

C.

Saṃdehabhañjikā.

SB.

332.

C.

by

Ātmārāmavyāsa.

NW.

252.

C.

by

Ānanda

Paṇḍita.

Oppert

II,

8103.

C.

Anvayārthaprakāśikā

by

Ekanātha

Bhaṭṭa.

L.

2555.

C.

Kavivallabha

by

Kāmadeva.

L.

357.

C.

by

Kāśīnātha.

NW.

250.

C.

by

Gadādhara

Tarkācārya.

L.

645.

C.

by

Gopīnātha.

Oudh

XIII,

44.

C.

by

Govindarāma.

Sūcīpattra

65.

C.

Cidānandakelivilāsa

by

Gauḍapāda.

Burnell

197^b.

C.

Vidvanmanoramā

by

Gaurīvara

Śarman,

com

pleted

by

Rāmacandra

Vācaspati.

L.

326.

1242.

C.

by

Cakravartin.

Pheh

2.

C.

Durgāmāhātmyāvabodhinī,

composed

by

Ca-

turbhujamiśra

in

1412.

Cambr.

2.

L.

2175.

Rādh

26.

Oudh

XVII,

10.

Peters.

2,

196.

Quoted

by

Rāmanātha

in

Trikāṇḍaviveka.

C.

by

Jagaddhara.

L.

2400.

Oudh

VIII,

4.

C.

by

Jayanārāyaṇa.

Peters.

3,

399.

C.

Daṃśoddhāra

by

Jayarāma.

K.

44.

C.

by

Nāgojī.

IO.

88.

L.

2576.

Khn.

92.

K.

54.

B.

4,

258.

Ben.

42.

Pheh

1.

Rādh

26.

NP.

II,

86.

Burnell

197^b.

202^b.

Bh.

17.

P.

9.

Poona

II,

96.

H.

36.

Oppert

II,

8404.

Peters.

1,

115.

C.

by

Nārāyaṇa.

Kh.

66.

Rādh

26.

C.

by

Nṛsiṃha

Cakravartin.

Sūcīpattra

65.

C.

Durgāsaṃdehabhedikā

by

Pītāmbaramiśra.

Ben.

42.

NW.

202.

NP.

II,

86.

III,

40.

C.

Vijayā

by

Bhagīratha.

L.

2407.

C.

Guptavatī

by

Bhāskararāya.

L.

2199.

Khn.

94.

K.

40.

B.

4,

258.

Rādh

26.

NW.

238.

Oudh

IX,

4.

XVII,

10.

NP.

II,

86.

Oppert

7052.

7439.

II,

4555.

Rice

300.

Peters.

1,

115.

C.

by

Bhīmasena.

Pheh

1.

Oudh

X,

6.

C.

by

Raghunātha

Maskarin.

Oudh

X,

6.

C.

by

Ravīndra.

Oudh

VIII,

4.

C.

Caṇḍīṭīkāsaṃgraha

by

Rāmakṛṣṇa

Śāstrin.

Rādh

26.

NW.

188.

C.

by

Rāmānandatīrtha.

L.

1045.

C.

by

Rāmāśrama.

Oudh

XIII,

36.

C.

by

Vidyāvinoda.

Sūcīpattra

65.

C.

Caṇḍīślokārthaprakāśa

Tattvadīpikā,

composed

by

Virūpākṣa

in

1531.

L.

2149.

C.

by

Vṛndāvana

Śukla.

NW.

252.

C.

by

Śaṅkara

Śarman.

L.

2063.

C.

by

Śaṃtanu.

Oxf.

44^a.

L.

1698.

Khn.

94.

K.

54.

Pheh

2.

Rādh

26.

P.

9.

C.

by

Śiva

Bhaṭṭa.

L.

609.

Wordnet Sanskrit

Synonyms

चण्डी

(Noun)

त्रयोदशवर्णानां

छन्दोविशेषः।

"चण्ड्याः

प्रत्येकस्मिन्

चरणे

द्वौ

नगणौ

द्वौ

सगणौ

तथा

एकः

गुरुश्च

भवति।"

Synonyms

क्रोधना,

चण्डी,

भामिनी

(Noun)

क्रोधमयी

स्त्री।

"कथञ्चिद्

एव

अहं

क्रोधनायाः

दूरे

अगच्छम्।"

Synonyms

चण्डी

(Noun)

दुर्गायाः

रुपम्।

"अस्मिन्

देवालये

चण्ड्याः

भव्या

प्रतिमा

अस्ति।"

Synonyms

दुर्गा,

उमा,

कात्यायनी,

गौरी,

ब्रह्माणी,

काली,

हैमवती,

ईश्वरा,

शिवा,

भवानी,

रुद्राणी,

सर्वाणी,

सर्वमङ्गला,

अपर्णा,

पार्वती,

मृडानी,

लीलावती,

चणडिका,

अम्बिका,

शारदा,

चण्डी,

चण्डा,

चण्डनायिका,

गिरिजा,

मङ्गला,

नारायणी,

महामाया,

वैष्णवी,

महेश्वरी,

कोट्टवी,

षष्ठी,

माधवी,

नगनन्दिनी,

जयन्ती,

भार्गवी,

रम्भा,

सिंहरथा,

सती,

भ्रामरी,

दक्षकन्या,

महिषमर्दिनी,

हेरम्बजननी,

सावित्री,

कृष्णपिङ्गला,

वृषाकपायी,

लम्बा,

हिमशैलजा,

कार्त्तिकेयप्रसूः,

आद्या,

नित्या,

विद्या,

शुभह्करी,

सात्त्विकी,

राजसी,

तामसी,

भीमा,

नन्दनन्दिनी,

महामायी,

शूलधरा,

सुनन्दा,

शुम्यभघातिनी,

ह्री,

पर्वतराजतनया,

हिमालयसुता,

महेश्वरवनिता,

सत्या,

भगवती,

ईशाना,

सनातनी,

महाकाली,

शिवानी,

हरवल्लभा,

उग्रचण्डा,

चामुण्डा,

विधात्री,

आनन्दा,

महामात्रा,

महामुद्रा,

माकरी,

भौमी,

कल्याणी,

कृष्णा,

मानदात्री,

मदालसा,

मानिनी,

चार्वङ्गी,

वाणी,

ईशा,

वलेशी,

भ्रमरी,

भूष्या,

फाल्गुनी,

यती,

ब्रह्ममयी,

भाविनी,

देवी,

अचिन्ता,

त्रिनेत्रा,

त्रिशूला,

चर्चिका,

तीव्रा,

नन्दिनी,

नन्दा,

धरित्रिणी,

मातृका,

चिदानन्दस्वरूपिणी,

मनस्विनी,

महादेवी,

निद्रारूपा,

भवानिका,

तारा,

नीलसरस्वती,

कालिका,

उग्रतारा,

कामेश्वरी,

सुन्दरी,

भैरवी,

राजराजेश्वरी,

भुवनेशी,

त्वरिता,

महालक्ष्मी,

राजीवलोचनी,

धनदा,

वागीश्वरी,

त्रिपुरा,

ज्वाल्मुखी,

वगलामुखी,

सिद्धविद्या,

अन्नपूर्णा,

विशालाक्षी,

सुभगा,

सगुणा,

निर्गुणा,

धवला,

गीतिः,

गीतवाद्यप्रिया,

अट्टालवासिनी,

अट्टहासिनी,

घोरा,

प्रेमा,

वटेश्वरी,

कीर्तिदा,

बुद्धिदा,

अवीरा,

पण्डितालयवासिनी,

मण्डिता,

संवत्सरा,

कृष्णरूपा,

बलिप्रिया,

तुमुला,

कामिनी,

कामरूपा,

पुण्यदा,

विष्णुचक्रधरा,

पञ्चमा,

वृन्दावनस्वरूपिणी,

अयोध्यारुपिणी,

मायावती,

जीमूतवसना,

जगन्नाथस्वरूपिणी,

कृत्तिवसना,

त्रियामा,

जमलार्जुनी,

यामिनी,

यशोदा,

यादवी,

जगती,

कृष्णजाया,

सत्यभामा,

सुभद्रिका,

लक्ष्मणा,

दिगम्बरी,

पृथुका,

तीक्ष्णा,

आचारा,

अक्रूरा,

जाह्नवी,

गण्डकी,

ध्येया,

जृम्भणी,

मोहिनी,

विकारा,

अक्षरवासिनी,

अंशका,

पत्रिका,

पवित्रिका,

तुलसी,

अतुला,

जानकी,

वन्द्या,

कामना,

नारसिंही,

गिरीशा,

साध्वी,

कल्याणी,

कमला,

कान्ता,

शान्ता,

कुला,

वेदमाता,

कर्मदा,

सन्ध्या,

त्रिपुरसुन्दरी,

रासेशी,

दक्षयज्ञविनाशिनी,

अनन्ता,

धर्मेश्वरी,

चक्रेश्वरी,

खञ्जना,

विदग्धा,

कुञ्जिका,

चित्रा,

सुलेखा,

चतुर्भुजा,

राका,

प्रज्ञा,

ऋद्भिदा,

तापिनी,

तपा,

सुमन्त्रा,

दूती,

अशनी,

कराला,

कालकी,

कुष्माण्डी,

कैटभा,

कैटभी,

क्षत्रिया,

क्षमा,

क्षेमा,

चण्डालिका,

जयन्ती,

भेरुण्डा

(Noun)

सा

देवी

यया

नैके

दैत्याः

हताः

तथा

या

आदिशक्तिः

अस्ति

इति

मन्यते।

"नवरात्रोत्सवे

स्थाने

स्थाने

दुर्गायाः

प्रतिष्ठापना

क्रियते।"

Mahabharata English

Caṇḍī

=

Durgā

(

Umā

):

VI,

797.

Kalpadruma Sanskrit

चण्डी,

स्त्रीलिङ्गम्

(

चण्डि

+

“बह्वादिभ्यश्चं

।”

४५

।इति

वा

ङीष्

)

दुर्गा

(

यथा,

तिथितत्त्वेदुर्गोत्सवबोधनप्रकरणे

।“चण्डीमामन्त्रयेद्

विद्वान्

नात्र

षष्ठी

पुरस्क्रिया

)हिंस्रा

कोपना

इति

मेदिनी

ते

१२

।(

यथा,

रघुवंशे

१२

।“सा

किलाश्वासिता

चण्डी

भर्त्त्रा

तत्

संश्रुतौ

वरौ

)अस्या

रूपान्तराणि

चण्डिः

चण्डा

चण्डिकाइत्यमरटीकायां

भरतः

*

मार्कण्डेयपुरा-णोक्तदेवीमाहात्म्यम्

तस्य

पाठक्रमो

यथा,

--“अर्गलं

कीलकञ्चादौ

पठित्वा

कवचं

पठेत्

।जपेत्

सप्तशतीं

पश्चात्

क्रम

एष

शिवोदितः

अर्गलं

दुरितं

हन्ति

कीलकं

फलदं

तथा

।कवचं

रक्षयेन्नित्यं

चण्डिका

त्रितयं

तथा

”इति

तन्त्रम्

अपि

।“नारायणं

नमस्कृत्य

नरञ्चैव

नरोत्तमम्

।देवीं

सरस्वतीं

व्यासं

ततो

जयमुदीरयेत्

आदौ

प्रणवं

जप्त्वा

स्तोत्रं

वा

संहितां

पठेत्

।अन्ते

प्रणवं

दद्यादित्युवाचादिपूरुषः

सर्व्वत्र

पाठे

विज्ञेयो

ह्यन्यथा

विफलं

भवेत्

।शुद्धेनानन्यचित्तेन

पठितव्यं

प्रयत्नतः

कार्य्यासक्तमनसा

कार्य्यं

स्तोत्रस्य

वाचनम्

।आधारे

स्थापयित्वा

तु

पुस्तकं

वाचयेत्

सुधीः

हस्तसंस्थापनादेव

यस्मादल्पफलं

लभेत्

।स्वयञ्च

लिखितं

यत्तु

कृतिना

लिखितं

यत्

अब्राह्मणेन

लिखितं

तच्चापि

विफलं

भवेत्

।ऋषिच्छन्दादिकं

न्यस्य

पठेत्

स्तोत्रं

विचक्षणः

स्तोत्रे

दृश्यते

यत्र

प्रणवन्यासमाचरेत्

।सङ्कल्पिते

स्तोत्रपाठे

संख्यां

कृत्वा

पठेत्

सुधीः

अध्यायं

प्राप्य

विरमेन्न

तु

मध्ये

कदाचन

।कृते

विरामे

मध्ये

तु

अध्यायादिं

पठन्नरः

ब्राह्मणं

वाचकं

विद्यान्नान्यवर्णजमादरात्

।श्रुत्वान्यवर्णजाद्राजन्

!

वाचकान्नरकं

व्रजेत्

देवार्च्चामग्रतः

कृत्वा

ब्राह्मणानां

विशेषतः

।ग्रन्थिञ्च

शिथिलं

कुर्य्याद्वाचकः

कुरुनन्दन

!

पुनर्ब्बध्नीत

तत्

सूत्रं

मुक्त्वा

धारयेत्

क्वचित्

।विस्पष्टमद्रुतं

शान्तं

स्पष्टाक्षरपदन्तथा

कलस्वरसमायुक्तं

रसभावसमन्वितम्

।बुध्यमानः

सदर्थं

वै

ग्रन्थार्थं

कृत्स्नशो

नृप

!

ब्राह्मणादिषु

सर्व्वेषु

ग्रन्थार्थञ्चार्पयेन्नृप

!

।य

एवं

वाचयेद्ब्रह्मन्

!

विप्रो

व्यास

उच्यते

सप्तस्वरसमायुक्तं

काले

काले

विशाम्पते

।प्रदर्शयन्

रसान्

सर्व्वान्

वाचयेद्वाचको

नृप

!

”तस्य

फलं

यथा,

--“चण्डीपाठफलं

देवि

!

शृणुष्व

गदतो

मम

।एकावृत्त्यादिपाठानां

यथावत्

कथयामि

ते

सङ्कल्प्य

पूर्व्वं

सम्पूज्य

न्यस्याङ्गेषु

मनून्

सकृत्

।पाठाद्बलिप्रदानाद्धि

सिद्धिमाप्नोति

मानवः

उपसर्गस्य

शान्त्यर्थं

त्रिरावृत्तं

पठेन्नरः

।ग्रहोपशान्त्यै

कर्त्तव्यं

पञ्चावृत्तं

वरानने

!

महाभये

समुत्पन्ने

सप्तावृत्तं

समुन्नयेत्

।नवावृत्त्या

भवेच्छान्तिर्वाजपेयफलं

लभेत्

राजवश्याय

भूत्यै

रुद्रावृत्तमुदीरयेत्

।अर्कावृत्त्या

काम्यसिद्धिर्वैरहानिश्च

जायते

मन्वावृत्त्या

रिपुर्व्वश्यस्तथा

स्त्रीवश्यतामियात्

।सौख्यं

पञ्चदशावृत्त्या

श्रियमाप्नोति

मानवः

कलावृत्त्या

पुत्त्रपौत्त्रधनधान्यागमं

विदुः

।राज्ञां

भीतिविमोक्षाय

वैरस्योच्चाटनाय

कुर्य्यात्

सप्तदशावृत्तं

तथाष्टादशकं

प्रिये

!

।महाव्रणविमोक्षाय

त्रिंशावृत्तिं

पठेत्

सुधीः

पञ्चविंशावर्त्तनात्तु

भवेद्बन्धविमोक्षणम्

।सङ्कटे

समनुप्राप्ते

दुश्चिकित्सामये

तथा

जातिध्वंसे

कुलोच्छेदे

आयुषो

नाश

आगते

।वैरिवृद्धौ

व्याधिवृद्धौ

धननाशे

तथा

क्षये

।तथैव

त्रिविधोत्पाते

तथा

चैवातिपातके

।कुर्य्याद्यत्नात्

शतावृत्तिं

ततः

सम्पद्यते

शुभम्

श्रियोवृद्धिः

शतावृत्ताद्राज्यवृद्धिस्तथापरे

।मनसा

चिन्तितं

देवि

!

सिद्धेदष्टोत्तराच्छतात्

शताश्वमेधयज्ञानां

फलमाप्नोति

सुव्रते

!

।सहस्रावर्त्तनाल्लक्ष्मीरावृणोति

स्वयं

स्थिरा

भुक्त्वा

मनोरथान्

कामान्

नरो

मोक्षमवाप्नुयात्

।यथाश्वमेधः

क्रतुराट्

देवानाञ्च

यथा

हरिः

स्तवानामपि

सर्ष्वेषां

तथा

सप्तशतीस्तवः

अथवा

बहुनोक्तेन

किमेतेन

वरानने

!

।चण्ड्याः

शतावृत्तपाठात्

सर्व्वाः

सिध्यन्तिसिद्धयः

”इति

तिथ्यादितत्त्वम्

*

अथ

प्रथमचरितस्य

ब्रह्मर्षिर्महाकाली

देवतागायत्त्री

छन्दो

नन्दा

शक्ती

रक्तदन्तिका

बीज-भग्निस्तत्वम्

तत्र

महाकाल्या

ध्यानं

यथा,

--“दशवक्त्रा

दशभुजा

दशपादाञ्जनप्रभा

।विशालया

राजमाना

त्रिंशल्लोचनमालया

स्फुरद्दशनदंष्ट्राभा

भीमरूपा

भयङ्करी

।स्वड्गशूलगदाबाणतोमरञ्च

भुषुण्डिभृत्

परिघं

कार्म्मुकं

शीर्षं

निश्च्योतद्रुधिरं

दधौ

।मधुकैटभयोर्युद्धे

ध्येया

सा

तामसी

शिवा

”मध्यमचरितस्य

विष्णुरृ

षिर्महालक्ष्मीर्देवताअनुष्ठुप्

छन्दः

शाकम्भरी

शक्तिर्दुर्गाबीजंसूर्य्यस्तत्वम्

तत्र

महालक्ष्म्या

ध्यानं

यथा,

--“श्वेतानना

नीलभुजा

सुश्वेतस्तनमण्डला

।रक्तमध्या

रक्तदेहा

स्थूलजङ्घोरुतालुका

चित्रानुलेपना

कान्ता

सर्व्वसौभाग्यशालिनी

।अष्टादशभुजा

पूज्या

सा

सहस्रभुजा

रणे

आयुधान्यत्र

रक्षन्ति

दक्षिणाधःकरक्रमात्

।अक्षमालाञ्च

मुषलं

बाणासिकुलिशं

गदाम्

चक्रं

त्रिशूलं

परशुं

शङ्खघण्टे

पाशकम्

।शक्तिदण्डं

चर्म्म

चापं

पानपात्रं

कमण्डलुम्

अलङ्कृतभुजा

एतैरायुधैः

परमेश्वरी

।स्मर्त्तव्या

स्तुतिकालादौ

महिषासुरमर्द्दिनी

इत्येषा

राजसी

मूर्त्तिः

सर्व्वदेवमयी

मता

।यां

ध्यात्वा

मानवो

नित्यं

लभेतेप्सितमात्सनः

”उत्तरचरितस्य

रुद्र

ऋषिः

सरस्वती

देवताउष्णिक्

छन्दो

भीमा

शक्तिर्भ्रामरी

बीजं

वायु-स्तत्वम्

तत्र

सरस्वत्या

ध्यानं

यथा,

--“गौरीदेहसमुत्पन्ना

या

सत्वैकगुणाश्रया

।साक्षात्

सरस्वती

प्रोक्ता

शुम्भासुरनिसूदनी

दधौ

चाष्टभुजा

बाणं

मुषलं

शूलचक्रकम्

।शङ्खघण्टाहलञ्चैव

कार्म्मुकञ्च

तथा

परम्

ध्येया

सास्तुतिकालादौ

वघे

शुम्भनिशुम्भयोः

”इति

कात्यायनीतन्त्रम्

(

छन्दोविशेषः

तल्लक्षणं

यथा,

छन्दोमञ्जर्य्याम्

।“नयुगलसयुगलगैरिति

चण्डी

)

Vachaspatyam Sanskrit

चण्डी

स्त्री

चण्ड--बह्वा०

वा

ङीष्

दुर्गायां

सप्तशतीव्याख्यायां

गुप्तवत्यां

तु

तन्नामनिरुक्त्यदिमुक्तं

यथा“प्रसादो

निष्फलो

यस्य

कोपोऽपि

निरर्थकः

नतं

भर्त्तारमिच्छन्ति

षण्डं

पतिमिव

स्त्रियः”

इत्यादिनामहाभयजनकत्वेनैव

कोपस्य

साफल्योक्तेस्तादृश

एवकोपे

चडिधातोर्मुख्यवृत्त्या

प्रवृत्तेस्तद्वशादेव

“नमस्तेरुद्र

मन्यव”

इत्यादिना

प्रथमं

मन्यव

एव

नमस्कार

दर्श-नात्

“भीषास्माद्वातः

पवते

भीषोदेति

सूर्य्यः

भीषास्माद-ग्निश्चेन्द्रश्च

मृत्युर्धावति

पञ्चमः”

इत्यादिश्रुत्या

वाय्वादिभयजनककोपस्यापि

परब्रह्मलिङ्गत्वमक्षतमेव

अतएव

“मह-द्भयं

वज्रमुद्यतमिति

श्रुतौ

वज्रपदेन

ब्रह्मैवोच्यते

नायुधविशेषो

भयजनकत्वलिङ्गादित्युक्तमुत्तरमीमांसायाम्

“क-म्पनादित्यधिकरण

तस्माच्छब्दात्पुंयोगलक्षणे

ङीषि

च-ण्डीति

पदनिष्पत्तिः

तत्स्वरूपं

चोक्तं

रत्नत्रयपरीक्षायाम्दीक्षितैः

“नित्यं

निर्दोषगन्धं

निरतिशयसुखं

ब्रह्मचैतन्यमेकं

धर्मोधर्मीति

भेदद्वितयमिति

पृथग्भूय

माया-वशेन

धर्मस्तत्रानुभूतिः

सकलविषयिणी

सर्वकार्य्यानुकूला

शक्तिश्चेच्छादिरूपा

भवति

गुणगणश्चाश्रयस्त्वेकएव

कर्त्तृत्वं

तत्र

धर्मी

कलयति

जगतां

पञ्चसृष्ट्यादिकृत्ये

धर्मः

पुंरूपमाप्त्वा

सकलजगदुपादानभावं

बिभर्त्ति

।स्त्रीरूपं

प्राप्य

दिव्या

भवति

महिषी

स्वाश्रयस्यादिकर्त्तु

प्रोक्तौ

धर्मप्रभेदावपि

निगमविदां

धर्मिवत्

ब्रह्मकोटीइति

वृहद्वासिष्ठे

उत्पत्तिप्रकरणे

द्वादशे

स्वर्गे

सृष्ट्या-रम्भकालिकं

ब्रक्षसत्तामात्रं

प्रक्रम्य

“तदात्मनि

स्वयंकिञ्चिच्चेंत्यतामिव

गच्छति

अगृहीतात्मकं

संविदहं-मर्शनपूर्वकम्

भाविनामार्थकलनैः

किञ्चिदूहितरूपकम्

।आकाशादणु

शुद्धं

सर्वस्मिन्

भाति

बोधनम्

ततः

सापरमा

सत्ता

सचेतश्चेतनोन्मुखी

चिन्नामयोग्या

भवतिकिञ्चिल्लभ्यतया

तदा

घनसंवेदना

पश्चाद्भाविजीवा-दिनामिका

सम्भवत्यात्तकलना

यदोज्झति

परं

पद-मित्यादि”

तट्टीकायामपि

सन्मात्रस्य

ब्रह्मणः

“स

ईक्षतलोकान्नुसृजै”

इति

श्रुतिसिद्धमीक्षणभावं

दर्शयति

तदि-ति

त्रिभिः

अगृहीतात्मकम्

अहङ्काराध्यासरहि-तम्

अतएव

संविन्मात्रेणाहन्ताविमर्शः

सर्वस्मिन्नपिसृज्यविषये

भाविनामरूपानुसन्धानांशेऽपि

किञ्चिदेवसंपृक्तमिव

अतएवाकाशादप्यण्वेव

तु

घनम्

।अतएव

शुद्धमेव

घनमालिन्याभावाद्ब्रह्मैव

चेत्यतांगच्छन्तीव

सती

सचेतश्चेतना

ईक्षणवृत्त्यभिव्यक्तचैतन्यंतदुन्मुखी

तत्प्रधाना

सती

किञ्चिल्लभ्यतया

याक्प्रवृत्तिविषय

धर्म्म

लाभेन

तदा

चिन्नामयोग्या

भवतीत्यर्थः

प-श्चात्तु

सैव

वृत्तिश्चिरावृत्त्या

घनीभूता

सम्यगेवात्तकलनामूक्ष्मप्रपञ्चात्मभावलक्षणपरिच्छेदग्राहिणी

सती

परंपदमपरिच्छिन्नभूमानन्दात्मभावं

यदा

विस्मरति

तदा-हिरण्यमर्भाख्यसमष्टिजीवादिनामिका

भवतीत्याह

।धनेति

ईदृशेक्षणाद्यात्मिका

चण्डी

चिदादिनामकसमष्टिवृत्तिरूपधर्म्मात्मकशुद्धब्रह्माभिन्नानां

ज्ञाने-च्छाक्रियाणां

तिसृणां

व्यष्टीनां

महासरस्वतीमहा-कालीमहालक्ष्मीरितिप्रवृत्तिनिमित्तवैलक्षण्येन

नाम-रूपान्तराणि

तादृशनामरूपविशिष्टदेवतात्रयसम-ष्टित्वं

प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य

धर्म्मे

चण्डिकेति

व्यव-हारः

एवं

व्यष्टीनां

वामाज्येष्ठारौद्रीति

पश्यन्तीमध्यमम्

यैखरीति

ब्रह्मा

विष्णुः

रुद्र

इति

रूपभेदेन

समष्टे-रपि

अम्बिका

शान्ता

परेत्यादि

संज्ञा

अनन्ताःतन्त्रान्तरादवगन्तव्याः

द्वितीयसमष्टित्वादेवैषा

तुरीयेतिशक्ति

निर्दिश्यते

आचार्य्यभगबत्पादैरप्युक्तं

“गिरा-माहुर्देवीं

द्रुहिणगृहिणीमागमविदो

हरेः

पत्नींपद्मां

हरसहचरीमद्रितनयाम्

तुरीया

कापि

त्वंदुरधिगमनिःसीममहिमा

महामाये!

विश्वम्भ्रमयसिपरब्रह्ममहिषीति”

हिंस्रायां

कोपनायाञ्चमेदिनी

“मल्लिकामुकुले

चण्डि!”

सा०

द०

“नयु-गसयुगगुरुभिः

किल

चण्डी”

वृत्त०

र०

उक्ते

छन्दो-भेदे

उपचारात्

दुर्गामाहात्म्यावेदके

मार्कण्डे-यपुराणान्तर्गते

सप्तशतीमालामन्त्रात्मके

स्तवभेदे

।तत्पाठप्रकारादि

यथा

वाराहीत०

“अर्गलं

कीलक-ञ्चादौ

पठित्वा

कवचं

पठेत्

जपेत्

सप्तशतींपश्चात्

क्रम

एष

शिवोदितः

अर्गलं

दुरितं

हन्ति

कीलकंफलदं

तथा

कवचं

रक्षयेन्नित्यं

चण्डिका

त्रितयं

तथा”तिथित०

मत्स्यसू०

“जप्त्वा

प्रणवं

चादौस्तोत्रं

वा

संहितां

पठेत्

अन्ते

प्रणवं

दद्यादित्युवाचादिपूरुषः

सर्वत्र

पाठे

विज्ञेयो

ह्यन्यथा

विफलंभवेत्

शुद्धेनाऽनन्यचित्तेन

पठितव्यं

प्रयत्नतः

।न

कार्य्यासक्तमनसा

कार्य्यं

स्तोत्रस्य

वाचनम्

आधारेस्थापयित्वा

तु

पुस्तकं

वाचयेत्

सुधीः

हस्तसंस्थापना-देव

यस्मादल्पफलं

लभेत्

स्वयञ्च

लिखितं

यत्तुकृतिना

लिखितं

यत्

अब्राह्मणेन

लिखितं

तच्चापिविफलं

भवेत्

ऋषिच्छन्दादिकं

न्यस्य

पठेत्

स्तोत्रंविचक्षणः

स्तीत्रे

दृश्यते

यत्र

प्रणवन्यासमाचरेत्

।सङ्कल्पिते

स्तोत्रपाटे

संख्यां

कृत्वा

पठेत्

सुधीः

अध्यायंप्राप्य

विरमेन्नतु

मध्ये

कदाचन

कृते

विरामे

मध्येतु

अध्यायादिं

पठेन्नरः”

तत्रैव

भविष्यपु०

“ब्राह्मणं

वा-चकं

विद्यान्नान्य

वर्णजमादरात्

श्रुत्वान्यवर्णजाद्राजन्!”वाचकान्नरकं

व्रजेत्

देवार्च्चामग्रतः

कृत्वा

ब्राह्मणानांविशेषतः

ग्रन्थिञ्च

शिथिलं

कुर्य्याद्वाचकः

कुरुनन्दन!

।पुनर्बध्नीत

तत्सूत्रं

मुक्त्वा

धारयेत्

क्वचित्

विस्पष्टम-द्रुतं

शान्तं

स्पष्टाक्षरपदन्तथा

कलस्वरसमायुक्तं

रस-भावसमन्वितम्

बुध्यमानः

सदर्थं

वै

ग्रन्थार्थं

कृत्स्नशोनृप!

ब्रह्मणादिषु

सर्वेषु

ग्रन्थार्थञ्चार्पयन्निव

एबंवाचयेद्व्रह्मन्!

विप्रो

व्यास

उच्यते

सप्तस्वरसमायुक्तकाले

काले

विशाम्पते!

प्रदर्शयन्

रसान्

सर्वात्

वाचये-द्वाचको

नृप!”

तस्य

फलं

यथा

“चण्डीपाष्टफलं

देवि!

शृणुष्व

गदतो

मम

एकावृत्तादिपाठानांयथावत्

कथयामि

संकल्पपूर्वं

संपूज्य

न्यस्याङ्गेषु

मनून्सकृत्

पाठाद्बलिप्रदानाद्धि

सिद्धिमाप्तोति

मानवः

।उपसर्गस्य

शान्त्यर्थं

त्रिरावृत्तं

पठेन्नरः

ग्रहोपशान्त्यैकर्त्तव्यं

पञ्चावृत्तं

वरानने!

महाभये

समुत्पन्ने

सप्ता-वृत्तं

समुन्नयेत्

नवावृत्त्या

भवेच्छान्तिर्वाजपेयफलंलभेत्

राजवश्याय

भूत्यै

रुद्रावृत्तमुदीरयेत्

।अर्कावृत्त्या

काम्यसिद्धिर्वैरहानिश्च

जायते

मन्वा-वृत्त्या

रिपुर्वश्यस्तथा

स्त्री

वश्यतामियात्

सौख्यंपञ्चदशादृत्त्या

श्रियमाप्नोति

मानवः

कलावृत्त्या

पुत्र-पौत्रधनधान्यागमं

विदुः

राज्ञां

भीतिविमोक्षायवैरस्योच्चाटनाय

कुर्य्यात्

सप्तदशावृत्तं

तथाष्टादशकंप्रिये!

महाव्रणविमोक्षाय

त्रिंशावृत्तं

पठेत्सुधीः

पञ्चविंशावर्त्तनात्तु

भवेद्बन्धविमोक्षणम्

।सङ्कटे

समनुप्राप्ते

दुश्चिकित्स्यामये

तथा

जातिध्वंसेकुलोच्छेदे

आयुषो

नाश

आगते

वैरिवृद्धौ

व्याधिवृद्धौधननाशे

तथा

क्षये

तथैव

त्रिविधोत्पाते

तथा

चैवाति-पातके

कुर्य्याद्

यत्नात्

शतावृत्तं

ततः

सम्पदातेशुभम्

श्रियोवृद्धिः

शतावृत्ताद्राज्यवृद्धिस्तथापरे

मनसाचिन्तितं

देवि!

सिध्येदष्टोत्तराच्छतात्

शताश्वमेधय-ज्ञानां

फलमाप्तोति

सुव्रते!

सहस्रावर्त्तनात्

लक्ष्मी-रावृणोति

स्वयं

स्थिरा

भुक्त्वा

मनोरथान्

कामान्नरोमोक्षमवाप्नुयात्

यथाश्वमेधः

क्रतुराट्

देवानाञ्चयथा

हरिः

स्तवानामपि

सर्वेषां

तथा

सप्तशतीस्तवः

।अथ

वा

वहुनोक्तेन

किमेतेन

वरानने!

चण्ड्याः

शता-वृत्तपाठात्

सर्वाः

सिद्ध्यन्ति

सिद्धयः”

तिथित०

मत्स्यसूक्तादि“सकामैः

संपुटो

जाप्यो

निष्कामैः

संपुटं

विना

शत-मादौ

शतञ्चान्ते

संपुटोऽयमुदाहृतः”

इत्याद्युक्तेः

कामनाभेदेन

नबार्ण्ण

(

ऐँ

ह्रीँ

क्लीँ

चामुण्डायै

विच्चे

)मन्त्रादिभिरस्या

संपुटता,

अनया

वा

नवार्ण्णस्य

संपुटताकार्य्येति

मतद्वयं

तत्र

गुप्तवत्यां

सप्तशतीस्तोत्रेण

नवा-र्ण्णस्य

संपुटतोक्ता

यथाह

डामरतन्त्रे

“मार्कण्डेयपुराणोक्तं

नित्यं

चण्डीस्तवं

पठन्

पुटितं

मूलमन्त्रस्यजपेनाप्नोतिवाञ्छितमिति”

पुटितमिति

पाठक्रिया-विशेषणम्

पुटितत्वं

संपुटाकारता

तथा

स्तवोयथामूलमन्त्रजपस्य

संपुटाकारोभवति

तथा

पठनान्मूलजपस्ययद्वाञ्छितम्फलन्तत्सिध्यतीत्यर्थः

ततस्तवीयर्प्यादिन्यास-पूर्बकञ्चरित्रत्रयम्पठित्वा

मध्ये

स्वसङ्कल्पितसंख्यानुसारेणसहस्रादिसंख्याकं

नवार्णञ्जपित्वा

पुनश्चण्डीस्तवं

पूर्षवत्प-ठेत्

परंत्वेतदन्ते

पुनर्मूलमष्टोत्तरशतमात्रं

जप्त्वाऽऽत्मनि-वेदनादिकं

कुर्यात्

अयं

जपोऽङ्गभूतोन

प्रधानसंख्या-याभुपयुज्यते

इति

विशेषः

तदप्युक्तं

तत्रैव

चरित्रत्रयस्यऋष्यादीनुक्त्वा

“एवं

संस्मृत्य

ऋष्यादीन्ध्यात्वा

पूर्वोक्त-मार्गतः

सार्थस्मृतिः

पठेच्चण्डीस्तवं

स्पष्टपदाक्षरम्

।समाप्तौ

तु

महालक्ष्मीं

ध्यात्वा

कृत्वा

षडङ्गकम्

जपे-दष्टशतं

मूलं

देवतायै

निवेदयेदित्यादि”

केचित्तु

मूलमन्त्रजपेन

पुटितं

चण्डीस्तवं

पठन्निति

प्रथम

श्लोकं

योजयन्तश्चरमश्लोके

पुनर्विधानं

संख्यामात्रपरमिति

मन्य-मानाः

सप्तशतीस्तोत्रस्यैव

मूलेन

संपुटीकारोविधीयत-इत्यङ्गाङ्गीभाववैपरीत्यमिच्छन्ति

तदयुक्तं

“बहुषुतन्त्रेषु

नवार्ण्णं

प्रकृत्य

तत्प्रकरणे

सप्तशतीपाठविधानेननवार्ण्णजपस्य

प्राकरणिकत्वेनान्याङ्गत्वायोगात्

तत्र-विद्यमानाया

अपि

स्तोत्रे

फलश्रुतेः

प्रयाजफलश्रुतेः“वसन्तमेवर्त्तूनामवरुन्धे”

इत्यस्याइवाविवक्षितार्थ-कत्वात्

मरीचिकल्पे

“रात्रिसूक्तं

जपेदादौ

मध्येचण्डीस्तवम्पठेत्

प्रान्ते

तु

जपनीयं

वै

देवीसूक्तमितिक्रमः

एवं

संपुटितं

स्तोत्रं

पूर्वोक्तफलदायकम्”

इत्य-नेन

वैदिकमूक्तद्वयेन

संपुटिततायाः

सप्तशत्यां

विधा-नाच्च

सच

स्तवः

मार्कण्डेयपुराणस्थत्रिसप्तत्यध्यायो-त्तरं

षडशीतितमाध्यायान्तमभिव्याप्तः

“सावर्णिःसूर्यतनयः”

इत्यारभ्य

साबर्णिर्भविता

मनुरित्यन्तस्त्रयो-दशभिरध्यायैः

परिच्छिन्नः

श्लोकसमूहात्मको

माला-मन्त्रत्वेन

प्रसिद्धः

अस्य

सप्तशतीत्वव्यवहारस्तु

नश्लोकसंख्यया

तेषां

षट्शतीतोऽपि

न्यूनत्वात्

नापिकवचादित्रयरहस्यत्रययोर्मेलनेन,

संख्याधिक्यापत्तेः

।“जपेत्

सप्तशतीं

चण्डीं

कृत्वा

तु

कवचं

पुरः”

इत्यनेनकवचख

सप्तशत्याः

पृथङ्निर्द्देशाच्च

तस्माप्जपे

एक-मन्त्रात्मकस्यापि

मालामन्त्रस्य

होमाङ्गत्वेन

संपुटार्थत्वेनच

सप्तशतधा

विभजनात्

शतरुद्रियस्येवैकातेकमन्त्रात्मक-त्वे

विरोधाभावात्तथा

व्यवहारोपपत्तिः

एतस्योत्तम-त्वन्तु

तन्त्रान्तरे

“यथाश्वमेधः

क्रतुषु

देवानाञ्च

यथाहरिः

स्तवानामपि

सर्वेषान्तथा

सप्तशतीस्तवः”

।तत्रापि

कलावतिप्रशस्तः

“कलौ

चण्डीविनायकाविति”वचनात्

वाराहीतन्त्रे

सर्वेषां

स्तोत्राणां

परशुराम-शापमुक्त्वा

तद्विरहितानि

कतिचिद्वर्णितानि

“भीष्म-पर्वणि

या

गीता

सा

प्रशस्ता

कलौ

युगे

विष्णोर्नामसहस्राख्यं

महाभारतमध्यगम्

चण्ड्याः

सप्तशती-स्तोत्रंतथा

नामसहस्रकम्”

इत्यादिना

“भार्गवाख्योनरामेण

शप्तान्यन्यानि

कारणात्”

इत्यन्तेन

यद्यपि

तन्त्रा-न्तरेऽस्यापिं

स्तोत्रस्य

शिवशापः

कीलनं

चेति

सिद्भिनिरोध-कावुक्तौ

तथापि

तत्रैव

शापोद्धारोत्कीलनयोः

कर्मविशे-षयोस्तदङ्गत्वेन

सकृत्करणविधानात्तदकरणे

सिद्धिविर-होक्त्या

तदावश्यकत्वपरौ

तावर्थवादौ

तत्र

शापोद्धा-रोयथा

त्रयोदशप्रथमौ,

द्वादशद्वितीयौ,

एकादशवृतीयौ,

दशमचतुर्थौ,

नवमपञ्चमौ,

अष्टमषष्ठौ,

अध्यायौपठित्वा

सप्तममध्यायं

द्विः

पठेदित्याकारकः

प्रयोगः

।उत्कीलनं

यथा

आदौ

मध्यमचरित्रं

पठित्वा

ततःप्रथमचरित्रन्ततस्तृतीयचरित्रंपठेदित्याकारकः

“अ-न्त्याद्यार्कद्विरुद्रत्रिदिगब्ध्यङ्केप्विभर्तवः

अश्वोऽश्व

इतिसर्गाणां

शापोद्ध्वारे

मनोः

क्रमः

उत्कीलने

चरि-त्राणां

मध्याद्यान्त्यमिति

क्रमः”

अङ्कोनवमः

इषुःपञ्चमः

इभोऽष्टमः

“ददाति

प्रतिगृह्णाति

नान्यथैषाप्रसिद्ध्यति”

इति

विहितं

दानप्रतिग्रहनामकमहोत्कीलनं

तु

कीलकाध्यायव्याख्यावसरे

विशदीकरिष्यते

।एवं

सम्प्रदायज्ञस्य

निर्दोषमुत्तमङ्कलौ

शीघ्रसिद्धिदमिदमिति

सिद्धम्

एतद्वाचनक्रमो

वाराहोतन्त्रे“यावन्न

पूर्यतेऽध्या

स्तावन्न

विरमेत्पठन्

यदि

प्रमा-दादध्याये

विरामोभवति

प्रिये!

पुनरध्यायमारभ्य-पठेत्सर्वं

मुहुर्मुहुः

अनुक्रमात्पठेदेव

शिरःकम्पादि-कं

त्यजेत्

मानसं

पठेत्स्तोत्रं

वाचिकन्तु

प्रशस्यते

।कण्ठतः

पाठाभावे

तु

पुस्तकोपरि

वाचयेत्”

तल्लेखने-ऽपि

तत्र

विशेषः

“न

खयं

लिखितं

स्तोत्रं

नाब्राह्मणलिपिम्पठेत्

स्वयंकृतं

स्तोत्रं

तथान्येन

यत्-कृतम्

यतः

कलौ

प्रशंसन्ति

ऋषिभिर्भाषितंतु

यत्”

।यत्तु

“आधारे

स्थापयित्वा

तु

पुस्तकं

वाचयेत्ततः

हस्तसंस्थापनादेव

भवेदर्द्धफलं

ध्रुवमिति”

तस्य

व्यवस्थापितत्रैव

“पुस्तके

वाचनं

हस्ते

सहस्रादधिकं

यदि

।ततोन्यूनस्य

तु

भवेद्वाचनं

पुस्तकं

विना”

सहस्रान्त्यूनमन्त्रस्य

कण्ठे

पाठसत्त्वे

पुस्तकं

विनैव

वाचनं,

तदभावेआधारे

पुस्तकस्थापतेनैव

वाचनं

सहस्राधिकस्य

तुपाठसत्त्वऽप्याधारस्थापितपुस्तकोपर्येव

वाचनमिति

वच-नार्थः

प्रकृतस्तोत्रस्य

सहस्रान्न्यूनत्वात्

“ततः

कृता-ञ्जसिपुटः

स्तुवीत

चरितैरिमैरिति”

वैकृतिकरहस्ये

विधा-द्धाच्च

कण्ठपाठाभावे

पुस्तकस्याधारे

स्थापनेवैव

वाचनम्ं

।कण्ठपाठीकृत्य

पुस्तकं

विनैव

तु

कृताञ्जलितया

पठन-मुत्तम

मिति

द्रष्टव्यम्

अत्रंसहस्रशब्देन

द्वात्रिंश-त्स्वरात्मकस्यैकैकानुष्टुप्त्वकल्पनेन

तादृशानुष्टुप्छन्दःसहस्रं

ज्ञेयमिति

स्पष्टम्

शक्तिसङ्गमतन्त्रराजे

“द्वात्रि-शता

स्वरैर्युक्त

एकोग्रन्थो

निगद्यते

सएव

गदितःश्लोक

स्तारानेत्रसमुद्भवः”

इत्यादिना

तेन

गद्यात्मक-मालामन्त्रेष्वप्यस्य

नियमस्य

प्रसरो

ज्ञेयः

स्तोत्रपूर्व्वो-त्तरभागपाठाभावे

नैष्फल्यादिवचनानि

शक्तिसङ्गमएवद्रष्टव्यानि

“ऋषिच्छन्दोदेवतादि

पठेत्

स्तोत्रे

समाहि-तः

यत्र

स्तोत्रे

दृश्येत

प्रणवन्यासमाचरेत्”

डामरे“सप्तशत्याश्चरित्रे

तु

प्रथमे

पद्मभूर्मुनिः

छन्दो

गायत्र-मुदितं

महाकाली

तु

देवता

वाग्बीजं

पावकस्तत्त्वंधर्मार्थे

विनियोजनम्

मध्यमस्य

चरित्रस्य

मुनिर्विष्णु-रुदाहृतः

उष्णिक्छन्दो

महालक्ष्मीर्देवता

बीज-मद्रिजा

वायुस्तत्त्वं

भवेत्तत्र

मोक्षार्थे

विनियोजनम्

।उत्तरस्य

चरित्रस्य

ऋषिः

शङ्कर

ईरितः

त्रिष्टुप्

छन्दोदेवतास्य

महापूर्वा

सरस्वती

कामोवीजं

रविस्तत्त्वंकामार्थे

विनियोजनम्

ह्रीं

चण्डिकायै

व्यस्तेन

सम-स्तेन

षडङ्गकौ

वागैँअद्रिजा

ह्रीँ

कामः

क्लीँ

इतिनवार्णप्रथम

वीजत्रयम्

ध्यानादिकं

नवार्णवत्

अस्य

पुर-श्चरणस्वरूपं

मरीचिकल्पे

“कृष्णाष्टमीं

समारभ्य

यावत्-कृष्णचतुर्दशीम्

वृद्ध्यैकोत्तरमाजाप्यं

पूर्वसंपुटितन्तु

तत्

।एवं

देवि!

मया

प्रोक्तः

पौरश्चरणिकः

क्रमः

तदन्तेहवनं

कुर्य्यात्प्रतिश्लोकेन

पायसम्

रात्रिसूक्तं

प्रति-ऋचं

तथा

देव्याश्च

सूक्तकम्

हुत्वान्ते

प्रजपेत्स्तोत्रमादौ

पूजादिकं

मुने!”

इति

पूर्वाभ्यां

पूर्व्वोक्ताभ्यांरात्रिसूक्तदेवीसूक्ताभ्यां

संपुटितम्

प्रतिल्लोकेनेतिमन्त्रविभागोपलक्षणम्

कात्यायन्यादितन्त्रोक्तसप्त-शतीविभागग्रन्थस्य

हवनादिविधिं

प्रति

वाक्यशेषत्वेनतेनैव

वेद्यपदार्थनिर्णयावश्यम्भावात्

“यन्न

दुःखेनेत्या-देः

स्थलान्तरस्थस्याप्यग्निहोत्रादिविधिशेषत्वेन

स्वीका-रेण

स्वर्गपदार्थनिर्णयस्य

वैदिकसंमतत्वात्

होमसंख्या

तु

स्तोत्रस्य

त्रिरावृत्तिरूपेति

वृद्धाः

रात्रिसूक्तदेवीसूक्ते

ऋग्वेदशाकलसंहितायां

प्रसिद्धे

तथे-त्यनेन

जपे

कॢप्तक्रमः

संपुटाकारो

निर्दिश्यते

तच्छ-ब्दस्य

पूर्व्वपरामर्शितत्वात्

तस्य

श्लोकपूरणमात्रार्थत्वेतु

द्वाभ्यामपि

सूक्ताभ्यां

त्रिरावृत्तसप्तशतीहोमोत्तर-मेव

पाठक्रमानुसारेण

होमः

“विश्वेश्वरीं

जगद्धात्रीम्”इति

स्तवोरात्रिसूक्तम्

“नमो

देव्यै

महादेव्यै”

इतिस्तवो

देवीसूक्तमिति

कश्चित्

तन्न

प्रतिश्लोकेनप्रतिऋधमिति

प्रतिनियतनिर्देशविरोधात्

ऋक्-सूक्तादिशब्दानां

वैदिकमन्त्रेष्वेव

रूढ्या

प्रसिद्धेः

।मत्स्यसूक्तमित्यादिक्वाचित्कतान्त्रिकव्यवहारस्य

केवलयौगिकत्वेनोपपत्तेः

तेन

ऋक्पदस्य

श्लोके

लक्षणे-त्युक्तिरपि

साहसमात्रम्

समुद्रमनोध्यानादिविधौवृहद्रथन्तरपदयोः

प्रतिनियतनिर्देशबलादेव

लक्षणा-व्यवस्थाया

इव

प्रकृते

क्लप्ताया

एव

शक्तर्व्यवस्थादार्ढ्य-स्य

कैमुतिकन्यायेनैव

सिद्धेः

यदि

त्वेवमालोच्यते“विश्वेश्वर्य्यादिकं

सूक्तं

दृष्टं

यद्ब्रह्मणा

पुरा

स्तुतयेयोगनिद्राया

मम

देव्याः

पुरन्दर!

महिषान्तकरीसूक्तं

सर्वसिद्धिप्रदन्तथा

देव्या

ययादिकं

दिव्यं

दृष्टंदेवैः

महर्षिभिः

देवि!

प्रपन्नार्त्तिहरे

प्रसीदेत्यादिकंतथा

नारायणीस्तुतिर्नाम

सूक्तं

परमशोभनम्

।अमुष्यास्तुतये

दृष्टं

ब्रह्माद्यैः

सकलैः

सुरैः

नमोदेव्यादिकं

सूक्तं

सर्वकामफलप्रदमिति”

विशकलितवेषेणपाञ्चरात्रलक्ष्मीतन्त्रे

व्यवहारदर्शनादेतेषां

स्तोत्राणा-मपौरुषेयसिद्धान्तत्वाच्च

सूक्तर्चव्यवहारो

युज्यतएवेति,

तदा

कात्यायनीतन्त्रमते

विश्वेश्वरीमिति

श्लो-कात्

पूर्वं

ब्रह्मोवाचेत्यस्य

पाठाभावात्तदुत्तरमेव

तत्पाठाच्चत्वं

स्वाहेत्यारभ्यैव

स्तोत्रारम्भः

तस्य

योगनिद्रा-त्मकरात्रिदेवतात्वान्मरीचितन्त्रे

रात्रिसूक्तपदेन

निर्देशइति

समाधेयम्

परन्तु

तत्तन्त्रमनुसरता

विश्वेश्वरी-मिति

श्लोकाङ्गहोमदशायां

होतव्यम्

स्तोत्रान्तिमश्लोकस्य

द्वधा

विभागोऽपि

कार्य्यः

देवीसूक्तेऽपित्रेधा

विभागोऽङ्गहोमे

विधेयः

प्रधानविघिशेषस्याङ्ग-विधावन्वयेन

प्रतिऋचमिति

पदे

लक्षणाकल्पने

माना-भावादित्यवधेयम्

क्रीडतन्त्रे

“प्रत्येकावर्त्तनं

देवि!त्वश्वमेधेन

संमितम्

त्रिरावृत्त्या

लभेत्कामान्

पञ्चावृत्त्यारिपून्

जयेत्”

काम्ये

तु

प्रयोगे

विशेषः

कात्यायनीतन्त्रे

“एकाश्चत्तादिपाठानां

प्रत्यहं

पठतां

नृणाम्

।सङ्कल्पपूर्व्वं

संपूज्य

न्यस्याङ्गेषु

मनून्

सकृत्

पश्चाद्बलि-प्रदानेन

फलं

प्राप्तोति

मानवः”

बलिश्च

ब्राह्मणादिभेदेनव्यवस्थयोक्तः

कालिकापुराणे

विशेषः

द्रष्टव्यः

तत्राशक्ता-नामपि

तत्रैव

“कुष्माण्डमिक्षुदण्डश्च

मद्यसासवमेव

एते

बलिसमाः

प्रोक्तास्तृप्तौ

छागसमाः

सदा”

।छागसमाः

पञ्चविंशतिवर्षावधितृप्तिजनकाः

“अजा-विकानां

रुधिरैः

पञ्चविंशतिवार्षिकीम्

तृप्तिमाप्नोतिपरमां

शार्दूलरुधिरैस्तथेति”

तत्रैवोक्तेः

वस्तुतस्तु“न

हिंस्या

दिति”

निषेघस्य

संकोचमन्तरेणैव

छागसमा-नतृप्तिसम्भवे

छागबलिर्ब्राह्मणैर्न

कार्यएव

एवंमद्यासवे

अपि

देये

“वरं

प्राणाः

प्रगच्छन्तु

ब्राह्मणोनार्पयेत्सुरामिति”

“ब्राह्मणो

मदिरां

दत्त्वा

ब्राह्मण्या-देवहीयते”

इति

वृहत्सङ्गमतन्त्ववचनात्

अत-एव

तत्प्रतिनिधिरपि

कालिकापुराणे

स्मर्यते“अवश्यं

विहितं

यत्रं

मद्यं

तत्र

द्विजः

पुनः

नारिकेलजलङ्कांस्ये,

ताम्रे

चैवोत्सृजेन्मधु”

कात्यायनीतन्त्रे

“उपसर्गोपशान्त्यर्थं

त्रिरावृत्तिं

पठेन्नरः

।ग्रहदोषोपशान्त्यर्थं

पञ्चावृत्तं

वारनने!

महाभयेसमुत्पन्ने

सप्तावृत्तमुदीरयेत्”

इत्यादिना

फलभेदेनसंख्याभेदाननेकानुक्त्वोपसंहृतम्

“अथ

वा

बहुनोक्तेनकिमन्येन

वरानने!

चण्ड्याः

शतावृत्तपाठात्सर्वाःसिध्यन्ति

सिद्धयः”

इति

इतोऽप्यधिकाः

सहस्रसख्या-दयोऽत्र

द्रष्टव्याः

हरगौरीतन्त्रे

“श्रीकामः

पुत्रकामोवा

सृष्टिमार्गक्रमेण

तु

जपेच्छक्रादिमारभ्य

शुम्भ-दैत्यबधावधि

आदिमारभ्य

प्रजपेत्पश्चाच्छेषं

समा-पयेत्

शान्त्यादिकामः

सर्वत्र

स्थितिमार्गक्रमेण

तु

।सावर्णिः

सूर्यतनयः

सावर्णिर्भविता

मनुः

सङ्कटे

चा-न्त्यमारभ्य

पश्चादादि

समापयेत्”

इत्यादिकस्य

कामना-भेदेन

पाठवैचित्र्यस्य

कतिपयश्लोकमात्रपाठेन

तत्तत्-प्रयोगवैचित्र्यस्य

विस्तरो

डामरादितन्त्रस्थोग्रन्थान्त-रेभ्य

एवावगन्तव्यः

केरलास्तु

एकैकस्मिन्दिवसे

एकैकमेवचरित्नं

पठेदिति

दिनत्रयेणैकावृत्तिरित्येकः

पक्षः

।“चन्द्राक्षिभूवेदकरेन्दुदस्रसङ्ख्याकानध्यायान्

क्रमेणदिनभेदेन

पठेदिति

सप्तभिर्दिनैरेका

वृत्तिरित्यन्यःपक्षः

इत्याहुः

अत्र

द्वितीयमेव

पक्ष

पाटोऽयंद्वि-प्रकारः

इति

सप्ताक्षर्यां

संगृह्णन्त

बहवस्तदनुया-यिनोऽनुतिष्ठन्ति

कचटतपयशवर्गवैरिहभपिण्डान्त्येरक्षरैरङ्गाः

नेत्रे

शून्यं

ज्ञेयं

तथा

स्वरे

केवले

कथिते”इति

प्रसिद्धपरिभाषया

पकारयकारककारा

एकस्मिन्ठप्ररेफा

द्वयो

र्द्विशब्दश्चतुर्षु

संकेतित

इति

तत्रमूलत-न्त्राणि

एव

जानन्ति

सन्त्यऽपि

तानि

तन्त्रवचनानिएकदिनेनैकावृत्त्यशक्तपराणि

अस्ति

हि

तादृशोऽप्यस्यप्रयोगः

कात्यायनीतन्त्रे

मन्त्रविभजनान्ते”

होमे

स्वाहा-न्तिमा

एते

पूजायां

तु

नमोऽन्तिमाः

तर्पणे

तर्पया-म्यन्ता

ऊहनीयाबुधैर्मताः”

इति

वचनात्

सप्तशत-ब्राह्मणभोजने

प्रतिव्यक्त्येकैकमन्त्रेण

काण्डानुसमयेनषोडशोपचाराणां

पदार्थनुसमयेन

वा

पञ्चोपचारा-णां

वा

कर्त्तुमशक्यतया

स्वेच्छयाऽध्यायभेदेन

वाऽनेकदिनसाध्यैकप्रयोगप्रसक्तौ

उक्तवचनैर्विभजननियमो-विधीयत

इति

अत्र

स्वयं

पठितुमसमर्थस्य

वा

प्रभोर्वाब्राह्मणद्वाराऽपि

प्रयोग

इष्टः

तत्पक्षे

दक्षिणानियमस्तन्त्रेषु

“पञ्चस्वर्णा

शतावृत्तेः

पक्षावृत्तेस्तु

त-त्त्रयम्

पञ्चावृत्तेः

स्वर्णमेकं

त्रिरावृत्तेस्तदर्धकम्

।एवावृत्तौ

पादमेकं

दद्याद्वा

शक्तितो

बुधः”

इति

गुप्त-वती

पाठे

इतिबधशब्दौ

पाट्यौ

अध्यायान्ते

विधा-नपारिजाते

स्थितम्

।नन्दादिशक्तिभेदाम्रामर्य्यादिवीजभेदाश्च

अन्यत्रोक्ता

द्रष्टव्याः

।चण्ड्याः

होमाङ्गत्वेन

संपुटार्थत्वेन

सप्तशतमन्त्रवि-भागः

कात्यायनीतन्त्रे

दर्शितः

गुप्तवत्यां

तद्वाक्यव्या-ख्यानपूर्वकं

मन्त्रविभागे

विशेषं

युक्त्या

निर्णीय

संग्रह-श्लौकैर्यथा

निर्ण्णीतं

तथात्र

प्रदर्श्यते

तत्र

एकाध्यायात्मक्प्रथम

चरितस्य

मन्त्रविभागसूचकास्तत्रत्याः

श्लोका

यथा“मार्कण्डेय

उवाचेति

मन्त्रः

प्राथमिकोमतः

सावर्ण्याद्यामुनिवराश्रमान्ताः

श्लोकका

दश

सोऽचिन्तयत्

तदा

तत्रे-त्यर्धश्लोकात्मकोमनुः

मत्पूर्व्वैरित्युपक्रम्य

सप्त

श्लोकानृपान्तिमाः

अथ

वैश्यः,

समाध्याद्याःसंस्थितान्तास्तत-स्त्रयः

किं

नु

तेषां

कथं

ते

किम्

इत्यर्धश्लोककौ

मनू

।राजोवाच

ततोयैस्तेष्वित्यर्धश्लोकमन्त्रकौ

मार्कण्डेयस्ततस्तौ

समाधिः

श्लोकार्धमन्त्रकौ

वैश्योक्तिरेवमित्याद्याबन्धुष्वन्तास्ततस्त्रयः

तेषां

कृते

करोमीति

द्वावर्द्धश्लोकम-न्त्रकौ

कृत्वा

तु

ताविति

श्लोको

राजोक्तिर्भगवन्निति

।दुःखायेति

मन्त्रौ

द्वावर्धश्लोकात्मकौ

मतौ

ममत्वा-द्यामूढतान्ताश्चत्वारोऽथ

ऋषर्वचः

ज्ञानमस्तीत्युपक्रम्यमुक्तयेऽन्तास्ततोदश

सा

विद्येति

संसारेत्यप्यर्धश्लोककौ

मनू

राजोक्ति

र्भगवन्

केतिं

श्लोको

यत्तदिति

द्वयम्

।अर्द्धश्लोकात्मकमृषिर्नत्यैवेति

तथापि

तत्

द्वावर्धश्लोक-मन्त्रौ

स्तो

देवानां

कार्य्यमादितः

तेजसः

प्रभुरित्यन्ताश्लोकाः

षड्

व्रह्मणोऽथ

वाक्

त्वंस्वाहा

त्वं

खधेत्याद्याःश्लोकमन्त्रास्त्रयोदश

प्रबोधं

चेति

बोधश्चेत्यर्धश्लोका-त्मकौ

मनू

ऋषिरेवं

स्तुतेत्यादि

विभ्वन्तं

श्लोकपञ्चकम्

।तावपीत्युक्तवन्तावित्यर्द्ध

श्लोकमनुद्वयम्

भगवांश्च

भवेतांकिमन्येनेत्यर्धयुग्मकम्

ऋषिवाक्यं

वञ्चिताभ्यामित्येकःश्लोकमन्त्रकः

आवां

जहीत्यर्धमृषिस्तथेति

श्लोक-योर्युगम्

इत्यष्टसप्ततिश्लोकै

७८

रध्यायप्रथमात्मनः

प्रथ-मस्य

चरित्रस्य

सर्व्वे

मन्त्राश्चतुःशतम्ः

१०४

तेषूवाचाङ्कितामन्त्राद्व्येकद्व्येकत्रिपञ्चभिः

मृकुण्डपुत्रभगद्वैश्यव्रह्मनृपर्षिभिः

चतुर्द्दश

स्युः

श्लोकार्द्धाश्चतुर्विंशतिरी-रिताः

अवशिष्टास्तु

षट्षष्टिःश्लोकमन्त्रा

इति

स्थितिः”

।अध्यायत्रयात्मकस्य

द्वितीयचरितस्य

मन्त्रविभागसूचकास्त्रत्रत्याः

संग्रहश्लोका

यथा“ऋषिवागष्टषष्टिः

स्युः

प्लोकादेवासुरादयः

एवं

द्वि-तीयकेऽध्याये

मन्त्रा

एकोन

सप्ततिः

६९

ऋषिर्निहन्य-मानाद्याः

पञ्चत्रिंशत्तु

मन्त्रकाः

देव्युक्तिर्गर्ज

गर्जेतिश्लोक

एक

ऋषेर्वचः

पञ्च

श्लोका

इति

चतुश्चत्वारिं-शत्

४४

तृतीयके

ऋषिः

शक्रादयः

श्लोकाः

षड्विंशतिरथर्षिवाक्

श्लोकद्वयमथो

देवी

श्लोकार्धं

व्रियतामिति

।देवा

उचुस्त्रयः

श्लोका

भगवत्या

कृतादिकाः

वृद्व्रयेऽस्मत्प्रपन्ना

त्वमित्यर्धश्लोककोमनुः

ऋषेर्वचश्चतुःश्लोकीत्य-ध्याये

तु

चतुर्थके

मन्त्राद्विचत्वारिंशत्

४२

स्युरध्यायत्रितयात्मनः

मध्यमस्य

चरित्रस्य

पञ्चपञ्चाशदुत्तराः

।शतं

१५५

मन्त्रा

स्तेषु

देव्या

वचसीद्वे

ऋषेस्तु

षट्

देव-नामेकमर्धे

द्वे

अन्ये

श्लोका

इति

स्थितिः”

।नवाध्यायात्मकस्य

तृतीयचरित्रस्य

मन्त्रविभागसूचकाःतत्रत्याः

संग्रह

श्लोका

यथा“अथर्षि

वाक्पुराशुम्भेत्यादयः

श्लोककास्तु

षट्

देवाऊचुर्नमोदेव्या

इत्यादिश्लोकपञ्चकम्

ततःश्लोकैकबिंशत्याप्रतिश्लोकं

त्रिशस्त्रिशः

विभागादनुषङ्गाभ्यां

त्रिषष्ट्याहुतयो

यथा

महाकाल्याद्यर्थभेदान्नमस्तस्या

इति

त्रयःमन्त्राः

पूर्वोत्तरौ

शेषौ

या

देव्यर्धं

नमोनमः

तेषामाद्य-न्तयोर्योज्यौप्रतिप्तन्त्रक्रमेण

तौ

तेन

पर्य्यवसानं

स्या-देकैकोमन्त्र

ईदृशः

या

देवीत्यर्धमुच्चार्य्य

नमस्तस्यैनमोनमः

इत्युच्चरेत्

त्रिपाद्गायत्र्येषा

त्वर्धावसनिका

।एते

पूर्वार्धतुर्य्याङिव्रयोगोत्था

एकविंशतिः

भवन्ति

वि-ष्णुमायादिभ्रान्त्यन्तपदर्गार्भताः

प्रथमा

विष्णुमायोक्ताद्वितीया

चेतना

ततः

बुद्धिर्निद्रा

क्षुधा

छाया

शक्तिस्तृष्णातथाष्टमी

क्षान्तिर्जातिरथो

लज्जा

शान्तिः

श्रद्धा-त्रयोदशी

कान्तिर्लक्ष्मीस्ततोवृत्तिः

स्मृतिरूपेणसंस्थिता

दया

तुष्टिस्ततोमाता

भ्रान्तिरित्येकविंशतिः

।स्वस्थानवृद्ध्या

त्रिः

प्रोक्ता

स्त्रिषष्टिर्मनवः

स्मृताःइन्द्रियाणामितिश्लीक

एकमन्त्रस्तदुत्तरः

चिति-रूपेण

यत्येष

प्राग्वन्

मन्त्रत्रयात्मकः

स्तुता

सुरैरिति

श्लोकावृषिरेवं

स्तवादिकाः

श्लोकाः

सप्तदशाथर्षिर्निशम्येति

मनुत्रयम्

दूतोक्तिर्देवि!

दैत्येति

नव-श्लोका

ऋषर्वचः

इत्युक्ता

सा

तदेत्येकः

श्लोकोदेवीवचस्ततः

सत्यमुक्तमिति

श्लोकचतुष्कमथ

दूत-बाक्

अवलिप्तेति

चत्वारः

श्लोका

देव्यास्ततोवचः

।एवमेतदिति

द्वावित्येकोनत्रिंशदुत्तरम्

शतं

१२९

मन्त्राःपञ्चमे

षट्सप्तति

७६

श्लोकमण्डिते

अथर्षिरित्या-कर्ण्येति

चतुःश्लोकी

ऋषेर्वचः

तेनाज्ञप्तैति

श्लोकत्रयं

देवीवचस्ततः

दैत्येश्वरेणेत्येकोऽथ

ऋषिरित्युक्तइत्यमी

द्वादशेति

मताः

षष्ठे

चतुर्विंशतिमन्त्रकाः

२४

।अथर्षिवाक्

मयाज्ञप्ता

इत्याद्यास्त्र्याढ्यविंशतिः

२३

।ऋषिस्तावित्युभावित्थं

सप्तमे

सप्तविंशतिः

२७

अथर्षिवाणीचण्डे

चेत्यारभ्याभिजंघान

तम्

इत्यन्तः

पञ्च

पञ्चा-शच्छ्लोकामन्त्रास्ततःःपरम्

मुखेन

काली

जगृहेइत्यर्धश्लोकमन्त्रकः

ततोऽसाविति

षट्

श्लोकास्त्रि-षष्टिश्चेत्थमष्टमे

६३

राजा

विचित्रमित्यादि

श्लोकद्वयमथो

ऋषिः

चकार

कोपमित्याद्याः

सप्तत्रिंशदुदीरिताः

इत्येकचत्वारिंशत्

४१

स्युर्नवमाध्यायमन्त्र-काः

ऋषिर्निशुम्भं

निहतमिति

द्वावम्बिका-बचः

ऐकैवेति

द्वयं

देवी

तत

एकोऽहमित्यृषिः

।ततः

प्रववृते

युद्धमिति

श्लोकास्त्रयोदश

तत्रापि

सा

नि-राधारेत्यर्धश्लोकात्मकोमनुः

नियुद्धं

स्ये

तदा

दैत्यइत्याद्या

मनवोनव

इत्येवं

दशमेऽध्याये

द्वात्रिंशन्मनवोमताः

३२

ऋषेर्देव्याहते

तत्रेत्याद्यास्त्रिंशच्चतु-र्युता

३४

देवीवाग्

वरदेत्योको

देवाः

सर्वेति

चैककः

।देवी

वैवस्वतेत्यष्टावथ

शाकम्भरी

मनुः

अर्धश्लोका-त्मकः

पश्चाच्छ्लोकास्तत्रैव

चेति

षट्

एवमेकादशेमन्त्राः

पञ्चपञ्चाशदीरिताः

५५

देवीवागेभिरित्याद्याःश्लोका

अष्टादशोदिताः

सर्वं

ममैतदित्यर्धं

पश्वाद्याःश्लोकका

दश

ऋषेर्वचनमित्युक्तेत्याद्याः

श्लोका-स्ततस्त्रयः

निशुम्भे

चेत्यर्धमनुरेवं

भगवतीति

षट्

।इत्येकचत्वारिंशत्

४१

स्यु

र्द्वादशाध्यायमध्यकाः

ऋषिरेतत्त

इत्यर्धश्लोको

मन्त्रस्ततस्त्रयः

एवंप्रभावा

सेत्याद्या

मार्कण्डेय

उवाच

इति

तस्येति

षट्

श्लोका-देवी

यदिति

चैककः

मार्कण्डेय

उवाचाथ

ततो

वव्रेमनुद्वयम्

देव्युवाच

ततः

स्वल्पैरहोभिरिति

षण्म-ताः

अर्धश्लोकात्मका

मन्त्रा

मार्कण्डेयवचस्ततः

इतिदत्त्वा

तयोरेवं

देव्यावरमिति

द्वयम्

द्विर्दण्डकलितन्या-यादावृत्तं

स्याच्चतुष्टयम्

इत्येवमेकोनत्रिशन्

२९

मनवः-स्युः

त्रयोदश

अत्रापरे

नवार्धानि

केचिदेकादशाभ्यधुः

।न

तत्

कात्यायनीतन्त्रजल्पितं

किन्तु

कल्पितम्

इत्यु-त्तरचरित्रेऽस्मिन्नध्यायत्रिधना

त्मनि

सम्भूय

मन्त्रसंख्यैकचत्वारिंशच्चतुःशती

४४१

अर्धश्लोकात्मका

मन्त्र०स्तेषु

द्वादश

कीर्त्तिताः

त्रिपाद्

मन्त्रास्तु

षट्षष्टिर्द्वौ-श्लोकौ

पुनरुक्तकौ

श्लोका

अपुनरुक्तास्तु

त्रिशती

सप्त-विंशतिः

३२७

राजैको

देवदूतोक्ती

द्वे

द्वे

देव्युक्तयो-दश

मार्कण्डेयोक्तयस्त्रिस्रऋषिवाक्यानि

षोडश

।इत्युवाचाङ्कितामन्त्राश्चतुस्त्रिंशदिति

३४

स्यितिः

अथ-सर्वे

मिलितास्तदध्यायेषु

त्रयोदशसु

पञ्च

शतानिश्लोका

अष्टसप्ततियुतानि

५७८

तेष्वन्त्यौ

श्लोकौ

द्विपुणौभवतस्त्रेधा

द्वाविंशतिर्भागः

एकोनविंशतेश्च

द्वेध

तेपञ्चषष्टिरतिरिक्ताः

ब्रह्मा

भगवान्दूतोवैश्यो

देवानृपो

मृकण्डुसुतः

देव्यृषयश्चैकैकद्विद्वित्रिचतुःशरार्कऋक्षमिताः

इति

सप्ताधिकपञ्चाशदुवाचपदाङिकता

अमी

अधिकाः

द्वाविंशतिशतमेषांश्लोकैर्य्योगेन

मन्त्रसप्तशती

इति

विभजनमुदितप्रतिमन्त्रं

कात्यायनीतन्त्रे

तस्मादेतत्

प्रकृतिकम-पूर्णमन्यत्तु

यामलप्रभृति

एकमन्त्रस्त्रिपान्मन्त्रः

पुनरुक्तोऽर्धमन्त्रकः

उवाचाङ्कितैत्येवं

मन्त्रः

प्रोक्तोऽत्रपञ्चधा

मन्त्रपिण्डः

श्लोकपिण्डो

ऽध्यायपिण्ड

इतित्रिधा

।”

गुप्तवतीनागोजीभट्टकृतविभागस्त्वन्यादृशः

विस्तरभयान्नोक्तः

उ-भयोश्च

युक्तायुक्तत्वमुभयग्रन्थदर्शनेन

सुधीभिर्विचिन्त्यम्

।तदयं

संक्षेपः

।अध्यायः

श्लोकः

श्लोकात्मा

अर्द्धश्लोकात्मा

त्रिपाद्

उवाचाङ्कितःमन्त्रः१

च०

७८

६६

२४

१४

१०४२

६८

६८

६९३

४१

४१

४४४

३६

३५

४२२

च०

१४५

१४४

१५५५

७६

५४

६६

१२९६

२०

२०

२४७

२५

२५

२७८

६१

६१

६३अध्यायः

श्लोकः

श्लोकात्मा

अर्द्धश्लोकात्मा

त्रिपाद्

उवाचाङ्कितः

मन्त्रः९

३९

३९

४११०

२७

२७

३२११

५०

५०

५५१२

३८

३७

४११३

१७

१४

पुनरुक्त

२२९३

च०

३५५

३२७

१२

६६

३४

पुनरुक्त

२४४१समष्टिः

१३

५७८

५३७

३८

६६

५७

पुनरुक्त

२७००अस्या

रहस्यमुक्तं

मार्कण्डेय

पुंलिङ्गम्

प्राधानिकादिरहस्ये“राजोवाच

भगवन्नवतारा

मे

चण्डिकायास्त्वयोदिताः

।एतेषां

प्रकृतिम्ब्रह्मन्!

प्रधानं

वक्तुमर्हसि

आराध्यंयन्मया

देव्याः

स्वरूपं

येन

द्विज!

विधिना!

ब्रूहिसकलं

यथावत्

प्रणतस्य

मे

ऋषिरु०

“इदं

रहस्यं

परम-मनाख्येयं

प्रचक्षते

भक्तोऽसीति

मे

किञ्चित्तवावाच्यंनराधिप!

सर्वस्याद्या

महालक्ष्मीस्त्रिगुणा

परमेश्वरी

।लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा

सा

व्याप्य

कृत्स्नं

व्यवस्थिता

मातु-लिङ्गङ्गदां

खेटं

पानपात्रं

बिभ्रती

नागं

लिङ्गं

चयोनिञ्च

बिभ्रती

नृप

मूर्धनि

तप्तकाञ्चनवर्णाभा

तप्त-काञ्चनभूषणा

शून्यं

तदखिलं

स्वेन

पूरयामासतेजसा

शून्यं

तदखिलं

लोकं

विलोक्य

परमेश्वरी

।बभार

रूपमपरन्तमसा

केवलेन

हि

सा

भिन्नाञ्जनसं-काशा

दष्ट्रार्चितवरानना

षिशाललोचना

नारी

बभूवतनुमध्यमा

खड्गपात्रशिरःखेटैरलङ्कृतचतुर्भुजा

।कबन्धहारं

शिरसा

बिभ्राणा

हि

शिरःस्रजम्

।ताम्प्रोवाच

महालक्ष्मीस्तामसीं

प्रमदोत्तमाम्

ददामितव

नामानि

यानि

कर्म्माणि

तानि

ते

महामाया

म-हाकाली

महामारी

क्षुधा

तृषा

निद्रा

तृष्णा

चैकवीराकालरात्रिर्दुरत्यया

इमानि

तव

नामानि

प्रतिपाद्यानिकर्म्मभिः

एमिः

कर्माणि

ते

ज्ञात्वा

योऽधीते

सोऽऽश्नुतेसुखम्

तामित्युक्त्वा

महालक्ष्मीः

स्वरूपमपरन्नृप

।सत्वाख्येनातिशुद्धेन

गुणेनेन्दुपभन्दधौ

अक्षमालाङ्कुश-धरा

वीणापुस्तकधारिणी

सा

बभूव

वरौ

नारी

नामा-न्यस्यै

सा

ददौ

महाविद्या

महावाणी

भारती

वाक्-सरस्वती

आर्य्या

व्राह्मी

सहाधेनुर्वेदगर्भा

सुरेश्वरी

।अथोवाच

महालक्ष्मीर्महाकालीं

सरस्वतीम्

युवांजनयतान्देव्यौ

मिथुने

स्वानुरूपतः

इत्युक्त्वा

ते

महा-लक्ष्मीः

ससर्ज

मिथुनं

स्वयम्

हिरण्यगर्भौ

रुचिरौस्त्रीपुंसौ

कमलासनौ

ब्रह्मन्विधे

विरिञ्चेति

धा-तरित्याह

तं

वरम्

श्रीःपद्मे

कमले

लक्ष्मीत्याह-माता

स्त्रियञ्च

ताम्

महाकाली

भारती

मिथुनेसृजति

स्म

एतयोरपि

रूपाणि

नामानि

वदा-मि

ते

नीलकण्ठं

रक्तबाहुं

श्वेताङ्गं

चन्द्रशेखरम्

।जनयासास

पुरुषं

महाकाली

सितां

स्त्रियम्

रुद्रःशङ्करः

स्थाणुः

कपर्द्दीं

त्रिलोचनः

त्रयी

विद्याकामधेनुः

शास्त्रीभाषाक्षरास्वरा

सरस्वती

स्त्रियङ्गौरींकृष्णं

पुरुषं

नृपः

जनयामास

नामानि

तयोरपिवदामि

ते

विष्णुः

कृष्णो

हृषीकेशो

वासुदेवो

जनार्दनः

।उमा

गौरी

सती

चण्डी

सुन्दरी

सुभगा

शिवा

एवंयुवतयः

सत्यःपुरुषत्वं

प्रपेदिरे

चक्षुष्मन्तोऽनुपश्यन्तिनेतरेऽतद्विदो

जनाः

ब्रह्मणे

प्रददौ

पत्नीं

महालक्ष्मी-र्नृप

त्रयीम्

रुद्राय

गौरीं

वरदां

वासुदेवाय

चश्रियम्

स्वरया

सह

सम्भूय

विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्

।बिभेद

भगवान्नुद्रस्तद्गौर्या

सह

वीर्यवान्

अण्डमध्येप्रधानादि

कार्य्यजातमभून्नृप!

महाभूतात्मकं

सर्वंजगत्स्थावरजङ्गमम्

पुपोषपालयामास

तं

लक्ष्म्या

सहकेशवः

महालक्ष्मीरेवमजा

राजन्!

सर्वेश्वरेश्वरी

।निराकारा

साकारा

सैव

नानाभिधानभृत्

नाभा-न्तरैर्निरूप्यौषा

नाम्ना

नान्येन

केनचित्”

१४

अ०

।“ऋषिरुवाच

त्रिगुणा

तामसी

देवी

सात्विकी

यात्रिधोदिता

सा

शर्वा

चण्डिका

दुर्गा

भद्राभगवतीर्यंते

योगनिद्रा

हरेरुक्ता

महाकाली

तमो-गुणा

मधुकैटभनाशार्थं

यान्तुष्टावाम्बुजासनः

।दशवक्त्रा

दशभुजा

दशपादाञ्जनप्रभा

विशालया

राज-माना

त्रिंशल्लोचनमालया

स्पुरद्दशनदंष्ट्राढ्या

भीमरूपापि

भूमिष!

रूपसौभाग्यकान्तीनां

सा

प्रतिष्ठामहाश्रियाम्

खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्

।परिथं

कार्मुकं

शीर्षं

निश्चोतद्रुधिरे

दधौ

एषासा

वैष्णवी

माया

महाकाली

दुरत्यया

आराधितावशीकुर्य्यात्पूजाकर्त्तुश्चराचरम्

सर्वदेवशरीरेभ्यो

याऽऽविर्भूताऽसितप्रभा

त्रिगुणा

सा

महालक्ष्मीः

साक्षान्म-हिषमर्द्दिनी

श्वेतानना

नीलभुजा

सुश्वेतेस्तनमण्ड-ला

रक्तमध्या

रक्तपादा

नीलजङ्घोरुरुन्मदा

सुचित्रजघना

चित्रमाल्याम्बरबिभूषणा

चित्रानुलेपना

कान्तिरूपसौगाग्यशालिनी

अष्टादशभुजा

पूज्या

सा

सहस्रभुजा

सती

आयुधान्यत्र

वक्ष्यन्ते

दक्षिणाधःकर-क्रमात्

अक्षमाला

कमलं

वाणोऽसिः

कुलिशङ्गदा

।चक्रं

त्रिशूलं

परशुः

शङ्खोघण्टा

पाशकः

शक्ति-र्दण्डश्चर्म्मचापं

पानपात्रं

कमण्डलुः

अलङ्कृत

भुजा-मेभिरायुधैः

कमलासनाम्

सर्वदेवमयीमीशां

महा-लक्ष्मीमिमां

नृप!

पूजयेत्सर्वदेवानां

स्वर्लोकानां

प्रभु-र्भवेत्

गौरीदेहात्समुद्भूता

या

सत्वैकगुणाश्रया

।साक्षात्सरस्वती

प्रोक्ता

शुम्भासुरनिबर्हिणी

दधौचाष्टभुजा

वाणमुषले

शूलचक्रभृत्

शङ्खं

घण्टां

लाङ्ग-लञ्च

कार्मुकं

वमुधाधिप!

एषा

संपूजिता

भक्त्या

सर्व-ज्ञत्वं

प्रयच्छति

निशुम्भमथिनी

देवी

शुम्भासुरनिब-र्हिणी

इत्युक्तानि

स्वरूपाणि

मूर्त्तीनान्तव

पार्थि-व!

स्वरूपाणि

जगन्मातुः,

पृथगर्चां

निशामय

महा-लक्ष्मीर्यदा

पूज्या

महाकाली

सरस्वती

दक्षिणोत्तरयोःपूज्ये

पृष्ठतो

मिथुनत्रथम्

विरिञ्चिः

स्वरया

मध्ये

रु-द्वोगौर्या

दक्षिणे

वामे

लक्ष्म्या

हृषीकेश

इत्येवन्दे-वतात्रयम्

अष्टादशभुजा

मध्ये

वामे

चास्या

दशानना

।दक्षिणेऽष्टभुजा

लक्ष्मीर्महती

तां

समर्चयेत्!

अष्टादशभुजा-चैषा

यदा

पूज्या

नराधिप!

दशानना

चाष्टभुजा

दक्षि-णोत्तरयोस्तदा

कालमृत्यू

संपूज्यौ

सर्वारिष्टप्रशान्तये

यदा

चाष्टभुजा

पूज्या

शुम्भासुरनिबर्हिणी

।नवास्याः

शक्तयः

पूज्यास्तदा

रुद्रविनायकौ

नमोदेव्या

इति

स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं

समर्चयेत्

अवतार-त्रयार्चायां

स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रयाः

अष्टादशभुजा

चैषापूज्या

महिषमर्द्दिनी

महालक्ष्मीर्महाकाली

महती

चसरस्वती

ईश्वरी

पुण्यपापानां

सर्वलोकमहेश्वरी

।महिषान्तकरी

येन

पूजितासौ

जगत्प्रभुः

पूजयेज्ज-गतां

घात्रीं

चण्डिकाम्भक्तवत्सलाम्

अर्घ्यादिभिरलङ्का-रैर्गन्धपुष्पैस्तथोत्तमैः

धूपैर्दीपैः

सनैवेद्यैः

नानाभक्ष्यसमन्वितैः

रुधिराक्तेन

बलिना

मांसेन

सुरया

नृप!

!सुरभिणा

स्नानीयेन

चन्दनेन

सुगन्धिना

सकर्पूरैश्चताम्बूलैर्भक्तिभावसमन्वितैः

वामभागेऽग्रतो

देव्याःछिन्नशीर्षं

महासुरम्

पूजयेन्महिषं

येन

गतं

सा-युज्यमोशया

दक्षिणे

पुरतः

सिंहमत्युग्रं

धर्म्ममीश्व-रम्

ततः

कृताञ्जलिर्भूत्वा

स्तुवीत

चरितैस्त्रिभिः

एके-न

वा

मध्यमेन

नैकेनेतरयोरिह

चरितार्द्धञ्च

जपे-ज्जपन्

छिद्रमवाप्नुयात्

स्तोत्रमन्त्रैस्तुवीतेमां

यदि

वाजगदम्बिकाम्

प्रदक्षिणनमस्कारं

कृत्वा

मूर्घ्नि

कृ-ताञ्जलिः

क्षमापयेज्जगद्धात्रीं

मुहुर्मुहुरतन्द्रितः

।प्रतिश्लोकञ्च

जुहुयात्पायसं

तिलसर्पिषा

जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा

चण्डिकायै

शुभं

हबिः

मोनमः

पदैर्देवींपूजयेत्

सुसमाहितः

प्रयतः

प्राञ्जलिः

प्रह्वः

प्राणानारोप्य

चात्मनि

सुचिरम्भावयेदीशां

चण्डिकान्तन्मयोभवेत्

एवं

यः

पूजयेद्भक्त्या

प्रत्यहं

परमेश्वरीम्

।भुक्त्वा

भोगान्यथाकामं

देवीसायुज्यमाप्नुयात्

योनपूजयते

नित्यं

चण्डिकां

भक्तवत्सलाम्

भस्मीकृत्यास्यपुण्यानि

निर्दहेत्परमेश्वरी

तस्मात्पूजय

भूपाल!सर्वलोकमहेश्वरीम्

यथोक्तेन

विधानेन

चण्डिकांसुखमाप्स्यसि”

१५

अ०

।“ऋषिरुवाच

नन्दा

भगवती

नाम

या

मविष्यति

नन्द-जा

संस्तुता

पूजिता

ध्याता

वशीकुर्य्याज्जगत्रयम्

।कनकोत्तमकान्तिः

सा

सुकान्तिकनकाम्बरा

देवी

क-नकदामाढ्या

कनकोत्तमभूषणा

कमलाङ्गुशपाशा-ब्जैरलङ्कृतचतुर्भुजा

इन्द्रिरा

कमला

लक्ष्मीः

सा-श्रीरुक्माम्बुजासना

या

रक्तदन्तिका

नाम

देवी

प्रोक्तामयानघा

तस्याः

स्वरूपं

वक्ष्यामि

शृणु

सर्वभया-पहम्

रक्ताम्बरा

रक्तवर्णा

रक्तसर्वाङ्गभूषणा

।रक्तायुधा

रक्तनेत्रा

रक्तकेशाऽतिभीषणा

रक्ततीक्ष्णनखा

रक्तदशना

रक्त

दंष्ट्रिका

पतिं

नारीवानुरक्ता

देवीभक्तं

भजेज्जनम्

वसुधाभनितम्बा

सा

सुमेरुयुगलस्तनी

दीर्धौ

लम्बावतिस्थूलौ

तावतीव

मनोहरौ

।कर्कशावतिकान्तौ

तौ

सर्वानन्दपयोनिधी

भक्तान्सम्पाययेद्देवी

सर्वकामदुघौ

स्तनौ

खड्गपात्रं

मु-सलं

लाङ्गलञ्च

बिभर्त्ति

सा

आख्याता

रक्तचामुण्डादेवी

योगेश्वरीतिसा

अनया

व्याप्तमखिलं

जगत्स्थावरजङ्गमम्

इमां

यः

पूजयेद्भक्त्या

व्याप्तोति

च-राचरम्

अधीते

इमं

नित्यं

रक्तदन्तीवपुस्तबम्

।तं

सा

परिचरेद्देवी

पतिम्प्रियमिवाङ्गना

शाकम्भरी

३नीलवर्णा

नीलोत्पलविभूषणा

गम्भीरनाभिस्त्रिवलीबिभूषिततनूदरी

सुकर्कशसमोत्तुङ्गवृत्तपीनघनस्तनी

।मुष्टौ

शिलीमुखैः

पूर्णं

कमलं

कमलालया

पुष्प-पल्लवमूलादिफलादिशाकसञ्चयान्

काम्यानन्तरसै-र्युक्तं

क्षुत्तृण्मृत्युजरापहम्

कार्मुकञ्च

स्फुरत्-कान्तिर्बिभर्त्ति

परमेश्वरी

शाकम्भरी

शताक्षी

स्या-त्सैव

दुर्गा

प्रकीर्त्तिता

शाकम्भरीं

स्तुवन्ध्यायन्

जप-नसंपूजयन्नमन्

अक्षय्यमश्नुते

शीथ्रमन्नपानादि

सर्व-शः

भीमाऽपि

नीलवर्णा

सा

दंष्ट्रादशनभासुरा

।विशाललोचना

नारी

वृत्तपीनघनस्तनी

चन्द्रहासंच

डमरुं

शरं

पात्रञ्च

बिभ्रती

एकवीरा

काल-रात्रिः

सैवोक्ता

कासदा

स्तुता

तेजोमण्डलदुर्धर्षा-भ्रामरी

चित्रकान्तिभृत्

चित्रभ्रमरपाणिः

सा

महा-मारीति

गीयते

इत्येतामूर्त्तयोदेव्या

व्याख्याता

वसु-धाधिप!

जगन्मातुश्चण्डिकायाः

कीर्त्तिताः

कामधेनवः

।इदं

रहस्यं

परमं

वाच्यं

कस्यचित्वया

व्याख्यानंदिव्यमूर्त्तीनामधीप्वावहितः

स्वयम्

देव्याध्यानं

मयाप्रोक्तं

गुह्यात्गुह्यतरम्महत्

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन

सर्वकामफलप्रदम्

१६

अ०

।शतचण्डीविधानं

मन्त्रमहोदधौ

१८

तरङ्गे

नवार्ण्णप्रयोगानन्तरं

प्रतिपादितं

यथा“शतचण्डीविधानन्तु

प्रवक्ष्ये

प्रीतये

नृणाम्

नृपो-पद्रवआपन्ने

दुर्भिक्षे

भूमिकम्पने

अतिवृष्टावना-वृष्टौ

परचक्रभये

क्षये

सर्व्वे

विघ्ना

विनश्यन्ति

शत-चण्डीविधौ

कृते

रोगाणां

वैरिणां

नाशो

धनपुत्रसमृद्धयः

शङ्करस्य

भवान्या

वा

प्रासादनिकटे

शुभम्

।मण्डपं

द्वारवेद्याढ्यं

कुर्य्यात्

सध्वजतोरणम्

तत्रकुण्डं

प्रकुर्व्वीत

प्रतीच्यां

मध्यतोऽपि

वा

स्नात्वा

नित्यकृतिं

कृत्वा

वृणुयाद्दश

बाडवान्

जितेन्द्रियान्

सदा-चारान्

कुलीनान्

सत्यवादिनः

व्युत्पन्नांश्चण्डिका-पाठरताल्लँज्जादयावतः

मधुपर्कविधानेन

वस्त्रस्व-र्णादिदानतः

जपार्थमासनं

मालां

दद्यात्तेभ्योऽपिभोजनम्

ते

हविष्यान्नमश्नन्तो

मन्त्रार्थगतमानसाः

।भूमौ

शयानाः

प्रत्येकं

जपेयुश्चण्डिकास्तवम्

मार्कण्डेय-पुराणोक्तं

दशकृत्वः

सचेतसः

नवार्णं

चण्डिकामन्त्रंजपेयुश्चाऽयुतं

पृथक्

यजमानः

पूजयेच्च

कन्यानांनवकं

शुभम्

द्विवर्षाद्यादशाव्दान्ताः

कुमारीः

परि-पूजयेत्

नाधिकाङ्गां

हीनाङ्गीं

कुष्ठिनीञ्च

व्रणा-ङ्किताम्

अन्धां

काणां

केकराञ्च

कुरूपां

रोमयुक्-तनुम्

दासीजातां

रोगयुक्तां

दुष्टां

कन्यां

पूज-येत्

विप्रां

सर्व्वेष्टसंसिद्ध्यै

यशसे

क्षत्रियोद्भवाम्

।वैश्यजां

धनलाभाय

पुत्राप्तौ

शूद्रजां

यजेत्

द्विवर्षासा

कुमार्य्युक्ता

त्रिमूर्त्तिर्हायनत्रिका

चतुरव्दा

तुकल्याणी

पञ्चवर्षातु

रोहिणी

षडव्दा

कालिका

प्रोक्ताचाण्डका

सप्तहायनी

अष्टवर्षा

शाम्भवी

स्याद्दुर्गा

चनवहायनी

सुभद्रा

दशवर्षोक्ता

ता

मन्त्रैः

परिपूज-येत्

एकाव्दायाः

प्रीत्यभावो

रुद्रावदा

तु

विवर्जिता

।तासामावाहने

मन्त्रः

प्रोच्यते

शङ्करोदितः

मन्त्रा-क्षरमयीं

लक्ष्मीं

मातृणां

रूपधारिणीम्

नवदुर्गा-त्मिकां

साक्षात्

कन्यामावाहयाम्यहम्

कुमारिकादिकन्यानां

पूजामन्त्रान्

ब्रुवेऽधुना

जगत्पूज्ये!

जग-द्वन्द्ये!

सर्व्वदेवस्वरूपिणि

पूजां

गृहाण

कौमारि!

१जगन्मातर्नमोऽस्तु

ते

त्रिपुरां

त्रिपुराधारां

त्रिवर्गज्ञान-रूपिणीम्

त्रैलोक्यवन्दितां

देवीं

त्रिमूर्त्तिं

पूज-याम्यहम्

कालात्मिकां

कलातीतां

कारुण्यहृदयांशिवाम्

कल्याणजननीं

देवीं

कल्याणीं

पूजयाम्यहम्

अणिमादिगुणाधारामकाराद्यक्षरात्मिकाम्

।अनन्तशक्तिकां

लक्ष्मीं

रोहिणीं

पूजयाम्यहम्

काम-चारां

शुभां

कान्तां

कालचक्रस्वरूपिणीम्

कामदांकरुणोदारां

कालिकां

पूजयाम्यहम्

चण्डवीरां

च-ण्डमायां

चण्डमुण्डप्रमञ्जिनीम्

पूजयामि

महादेवींचण्डिकां

चण्डविक्रमाम्

सदानन्दकरीं

शान्तां

स-र्व्वदेवनमस्कृताम्

सर्व्वभूतात्मिकां

देवीं

शाम्भर्वी

पूज-याम्यहम्

दुर्गमे

दुस्तरे

कार्ये

भवार्णवविनाशिनीम्

।पूजयामि

सदा

भक्त्या

दुर्गां

दुर्गार्त्तिनाशिनीम्

।सुन्दरीं

स्वर्णवर्णाभां

सुखसौभाग्यदायिनीम्

सु-भद्रजननीं

देवीं

सुभद्रां

पूजयाम्यहम्

एतैर्मन्त्रैःपुराणोक्तैस्तां

तां

कन्यां

प्रपूजयेत्

गन्धैः

पुष्पैर्भक्ष्य-भोज्यैर्वस्त्रैराभरणैरपि

वेद्यां

विरचिते

रम्ये

सर्व्वतोभद्रमण्डले

घटं

संस्थाप्य

विधिवत्तत्रावाह्यार्च्चयोच्छि-वाम्

तदग्रे

कन्यकाश्चापि

पूजयेद्ब्राह्मणानपि

।उपचारैस्तु

विविधैः

पूर्व्वोक्तावरणान्यपि

एवं

चतु-र्द्दिनं

कृत्वा

पञ्चमे

होममाचरेत्

पायसान्नैस्त्रि-मध्वक्तैर्द्राक्षारम्भाफलैरपि

मातुलाङ्गैरिक्षुखण्डै-र्नारिकेलैः

पुरैस्तिलैः

जातिफलैराम्रफलैरन्यैर्मधु-रवस्तुभिः

सप्तशत्या

दशावृत्त्या

प्रतिश्लोकं

हुतञ्चरेत्

।अयुतञ्च

नवार्णेन

स्थापितेऽग्नौ

विधानतः

कृत्वाऽऽ-वरणदेवानां

होमं

तन्नाममन्त्रतः

कृत्वा

पूर्णाहुतिंसम्यग्देवमग्निं

विसृज्य

अभिषिञ्चेच्च

यष्टारं

वि-प्रौघः

कलसोदकैः

निष्कं

सुवर्णमथ

वा

प्रत्येकं

द-क्षिणां

दिशेत्

भोजयेच्च

शतं

विप्रान्

भक्ष्यभोज्यैःपृथग्विधैः

तेभ्योऽपि

दक्षिणान्दत्त्वा

गृह्णीयादाशिष-स्ततः

एवं

कृते

जगद्वश्यं

सर्व्वेनश्यन्त्युपद्रवाः

राज्यंधनं

यशः

पुत्रान्निष्टमन्यं

लभेत

सः”

।सहस्रचण्डीविधानं

तत्रैव

१८

तरङ्गे“एतद्दशगुणं

कुर्य्याच्चण्डीसाहस्रिकं

विधिम्

विद्या-वतः

सदाचारान्

ब्राह्मणान्

वृणुयाच्छतम्

प्रत्येकंचण्डिकापाठान्

विदध्युस्ते

दिशा

१०

मितान्

अयुतंप्रजपेयुस्ते

प्रत्येकं

नवार्णकम्

पूर्व्वोक्ताः

कन्यकाःपूज्याः

पूर्व्वमन्त्रेः

शतं

शुभाः

दशाहमेवं

संपाद्य-होमं

कुर्य्युः

प्रयत्नतः

सप्तशत्याः

शतावृत्त्या

प्रति-श्लोकं

विधानतः

लक्षसंख्यं

नवार्णेन

पूर्व्वोक्तैर्द्रव्य-सञ्चयैः

होतृभ्यो

दक्षिणान्दत्त्वा

पूर्व्वोक्तान्

भोजये-द्द्विजान्

सहस्रसंमितान्

साधून्

देव्याराधनतत्-परान्

एवं

सहस्रसंख्याके

कृते

चण्डीविधौ

नृणाम्

।सिध्यत्यभीप्सितं

सर्वं

दुःखौघश्च

विनश्यति

मारी-दुर्भिक्षरोगाद्या

नश्यन्ति

व्यसनोञ्चयाः

नेमं

विधिं

व-देद्दुष्टे

खले

चौरे

गुरुद्रुहि

साधौ

जितेन्द्रिये

दान्तेवदेद्विधिमिमं

परम्

एवं

सा

चण्डिका

तुष्टा

वक्तृन्श्रोतॄंश्च

रक्षति”

।चण्डीनवाक्षरविधानं

तत्रैव

१८

तरङ्गे“अथोनवाक्षरम्मन्त्रं

वक्ष्ये

चण्डीप्रसत्तये

वाङ्मायामदनो

दीर्घलक्ष्मीस्तन्द्रा

श्रुतीन्दुयुक्

डायै

सदृक्जलं

कूर्म्मद्वयं

झिण्टीशसंयुतम्

(

एँ

ह्रोँ

क्लीँ

चामु-ण्डायै

विच्चे

)

नवाक्षरोऽस्य

ऋषयो

व्रह्मविष्णुमहेश्वराः

।छन्दांस्युक्तानि

मुनिभिर्गाय

त्र्युष्णिगनुष्टुभः

देव्यः

प्रोक्तामहापूर्व्वा

काली

लक्ष्मीः

सरस्वती

नन्दाशाकम्भरीभीमाः

शक्तयोऽस्य

मनोः

स्मृताः

स्याद्रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्य्योवीजसञ्चयः

अग्निवायुभगास्तत्त्वम्फलं

वेदत्रयो-दितम्

सर्व्वाभीष्टप्रसिद्ध्यर्थं

विनियोगौदाहृतः

।ऋषिच्छन्दोदैवतानि

शिरोमुखहृदि

न्यसेत्

शक्तिवीजानिस्तनंयोस्तत्त्वानि

हृदये

पुनः

एकेनैकेन

चैकेन

चतुर्भि-र्युगलेन

समस्तेन

मन्त्रेण

कुर्य्यादङ्गानि

षट्सुधीः

ततएकादश

न्यासान्

कुर्वीतेष्टफलप्रदान्

।प्रथमोमातृकान्यासः

कार्य्यः

पूर्व्वोक्तमार्गतः

कृतेनयेन

देवस्य

सारूप्यं

याति

मानवः

अथ

द्वितीयं

कुर्व्वीतन्यासं

सारस्वताभिधम्

वीजत्रयन्तु

मन्त्राद्यं

तारादिहृदयान्तिकम्

क्रमादङ्गुलिषु

न्यस्येत्

कनिष्ठाद्यासुपञ्चसु

करयोर्मध्यतः

पृष्ठे

मणिवन्धे

कुर्परे

हृद-यादिषडङ्गेषु

विन्यसेत्

जातिसंयुतम्

अस्मिन्

सारस्वते-म्यासे

कृते

जाड्यं

विनश्यति

ततस्तृतीयं

कुर्व्वीत

न्यासंमातृगणान्वितम्

मायावीजादिका

ब्राह्मी

पूर्व्वतः

पातुमां

सदा

माहेश्वरी

तथाग्नेय्यां

कौमारी

दक्षिणेऽवतुवैष्णवी

पातु

नैरृत्ये

वाराही

पश्चिमेऽवतु

इन्द्राणीवायुकाणे

चामुण्डा

चोत्तरेऽवतु

ऐशाने

तु

महा-लक्ष्मीरूर्द्ध्वं

व्योमेश्वरी

तथा

सप्तद्वीपेश्वरी

भूमौ

रक्षे-न्नागेश्वरी

तले

तृतीयेऽस्मिन्

कृते

न्यासे

त्रैलोक्यविज-यी

भवेत्

न्यासं

चतुर्थं

कुर्व्वीत

नन्दजादिसमन्वितम्

।नन्दजा

पातु

पूर्व्वाङ्गे

कमलाङ्कुशमण्डिता

खङ्गपात्र-करा

पातु

दक्षिणे

रक्तदन्तिका

पृष्ठे

शाकम्भरी

पातुपुष्पपल्लवसंयुता

धनुर्वाणकरा

दुर्गा

वामे

पातु

सदैवमाम्

शिरःपात्रकरा

भीमा

मस्तकाच्चरणावधि

।पादादि

मस्तकं

यावद्भ्रामरी

चित्रकान्तिभृत्

तुर्य्यंन्यासं

नरः

कुर्वन्

जरामृत्यू

व्यपोहति

अथ

कुर्वीतब्रह्माद्यं

न्यासं

पञ्चममुत्तमम्

पादादिनाभिपर्य्यन्तंब्रह्मा

पातु

सनातनः

नाभेर्विशुद्धिपर्य्यत्तं

पातु

नित्यंजनार्द्दनः

विशुद्धेर्ब्रह्मरन्ध्रान्तं

पातु

रुद्रस्त्रिलोचनः

।हंसः

पातु

पदद्वन्द्वं

वैनतेयः

करद्वयम्

चक्षुषी-वृषभः

पातु

सर्वाङ्गाणि

गजाननः

परापरौ

देहभा-गौ

पात्वानन्दमयोहरिः

कृतेऽस्मिन्

पञ्चमे

न्यासेसर्वान्

कामानवाप्नुयात्

षष्ठं

न्यासंततः

कुर्य्यान्महाल-क्ष्म्यादिसंयुतम्

मध्यं

पातु

महालक्ष्मीरष्टादशभुजा-न्विता

ऊर्द्ध्वं

सरस्वती

पातु

भुजैरष्टाभिरूर्जिता

।अधः

पातु

महाकाली

दशबाहुसमन्विता

सिंहोहस्तद्वयं

पातु

मम

हंसोऽक्षियुग्मकम्

महिषं

दिव्यमारू-ढोयमः

पातु

पदद्वयम्

महेशश्चण्डिकायुक्तः

सर्वा-ङ्गाणि

ममावतु

षष्ठेऽस्मिन्

विहिते

न्यासे

सद्गतिंप्राप्नुयान्नरः

मूलाक्षरन्यासरूपं

न्यासं

कुर्वीतसप्तमम्

ब्रह्मरन्ध्रे

नेत्रयुगे

श्रुत्योर्नासिकयोर्मुखे

।पायौ

मूलमनोर्वर्णांस्ताराद्यान्नभसाऽन्वितान्

विन्यसेत्सप्तमे

न्यासे

कृते

रोगक्षयोभवेत्

पायुतो

ब्रह्मर-न्ध्रान्तं

पुनस्तानेव

विन्यसेत्

कृतेऽस्मिन्नष्टमे

न्यासेसर्वदुःखं

विनश्यति

कुर्वीत

नवमं

न्यासं

मन्त्रव्याप्तस्वरूपकम्

मस्तकाच्चरणं

याववरणान्मस्तकावधि

।पुरोदक्षे

पृष्ठदेशे

वामभागे

ऽष्टशो

न्यसेत्

मूलमन्त्र

छतो-न्यासो

नवमो

देवताप्तिकृत्

ततः

कुर्वीत

दशमं

पड्ङ-न्यासमुत्तमम्

मूलमन्त्रं

जातियुक्तं

(

दीर्घस्वरयुक्तम्

)

हट-यादिषु

विन्यसेत्

कृतेऽणिन्

दशमे

न्यासे

त्रैलोक्यंवशगं

भवेत्

दशन्यासोक्तफलदं

कुर्य्यादेकादशं

ततः

।खङ्किनी

शूलिनीत्यादि

(

अ०

६१--६५

)

पठित्वा

श्लोकपज्ञ-कम्

आद्यं(

ऐँ

)कृखतरं

वीजं

ध्यात्वा

गर्वाङ्गके

न्यसेष्ट

।शूलेन

पाहि

नो

देवीत्यादि

(

अ०

२३--२६

)

श्लोक-चतुष्टयम्

पठित्वा

सूर्य्यसदृशं

द्वितीयं

(

ह्रीँ

)

सर्वतो-न्यसेत्

सर्वस्वरूपे

सर्वेशे

इत्यादि

(

११

अ०

२३--२७

)श्लोकपञ्चकम्

पठित्वा

स्फटिकाभासं

तृतीयं

(

क्लीँ

)स्वतनौ

न्यसेत्

ततः

षडङ्गं

कुवींत

विभक्तैर्मूलवर्णकैः

।एकेनैकेन

चैकेन

चतुर्भिर्युगलेन

समस्तेन

चमन्त्रेण

कुर्य्यादङ्गानि

षट्

सुधीः

शिखायां

नेत्रयोःशुत्योर्नसोर्वक्त्रे

गुदे

न्यसेत्

मन्त्रवर्णान्

समस्तेनव्यापकं

त्वष्टशश्चरेत्

खड्गं

चक्रगदेषुचापपरिघान्शूलं

मुशुण्डीं

शिरः

शङ्खं

सन्दधतीं

करैस्त्रिनयनांसर्वाङ्गभूषाभृतम्

नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां

सेवेमहाकालिकां

यामस्तौत्

शयिते

हरौ

कमलजोहन्तुंमधुकैटभौ

अक्षस्रक्परशू

गदेषुकुलिशं

पद्मं

धनुः

कु-ण्डिकां

दण्डं

शक्तिमसिञ्च

चर्म्म

जलजं

घण्टां

सुरा-भाजनम्

शूल

पाशसुदर्शने

दधतीं

हस्तैः

प्रबालप्रभां

सेवे

सैरिभमर्द्दिनीमिह

महालक्ष्मीं

सरोजस्थि-ताम्

घण्टाशूलहलानि

शङ्खमुसले

चक्रं

धनुःसायकं

हस्ताब्जैर्दधतीं

घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्

गौरीदेहसमुद्भवां

त्रिजगतामाधारभूतांमहापूर्व्वामत्र

सरस्यतीमनभजे

शुम्भादिदैत्यार्द्दिनीम्

।एवं

ध्यात्वा

जपेल्लक्षचतुष्क

तद्दशांशतः

पायसान्नेनजुहुयात्

पूजिते

हेमरेतसि

जयादिशक्तिभिर्युक्ते

पीठेदेवीं

जयेत्ततः

तत्त्व

२५

पत्रावृतत्र्यश्रे

षट्कोणाष्टदला-न्विते

त्रिकोणमध्ये

संपूज्य

ध्यात्वा

तां

मूलमन्त्रतः

।पूर्व्वकोणे

विधातारं

स्वशक्त्या

सह

पूजयेत्

विष्णुंश्रिया

नैरृत्ये,

वायव्ये

तूमया

शिवम्

उदग्दक्षिणयोःसिंहं

महिषञ्च

क्रमाद्यजेत्

षट्कोणेषु

पूर्वादौनन्दजां

रक्तदन्तिकाम्

शाकम्भरीं

तथा

दुर्गां

मीमाश्चभ्रामरीं

यजेत्

सविन्दुनामवर्णाद्यास्ताराद्याश्चनमोऽन्तिमाः

नन्दजाद्या

यजेच्छक्तीर्वक्ष्यमाणा

अपी-दृशीः

अष्टपत्रेषु

ब्रह्माणी

पूज्या

माहेश्वरी

परा

।कौमारी

वैष्णवी

चाथ

वाराही

नारसिंह्यपि

प-श्चादैन्द्री

चामुण्डा

तथा

तत्त्व

२५

दलेष्विमाः

।विष्णुमाया

चेतना

बुद्धिर्निद्रा

क्षुधा

ततः

छायाशक्तिः

परा

तृष्णा

क्षान्तिर्ज्जातिश्च

लज्जया

शान्तिःश्रद्धा

कान्तिलक्ष्म्यौ

धृतिर्वृत्तिः

श्रुतिः

स्मृतिः

।दया

तुष्टिस्ततः

पुष्टिर्माता

भ्रान्तिरिति

क्रमात्

।बहिर्भूगृहकोणेषु

गणेशः

क्षेत्रपालकः

वटुकश्चापियोगिन्यः

पूज्या

इन्द्रादिका

अपि

एवं

सिद्धे

मनौमन्त्रो

भनेत्

सौभाग्यभाजनम्

मार्कण्डेयपुराणोक्तंनित्यं

चण्डीस्तवं

पठन्

पुटितं

मूलमन्त्रेण

जपन्ना-प्नोति

वाञ्छितम्

आश्विनस्य

सिते

पक्षे

आरभ्याग्नितिर्थिसुधीः

अष्टम्यन्तं

जपेल्लक्षं

दशांशं

होममाचरेत्

।प्रत्यहं

पूजयेद्देवीं

पठेत्

सप्तशतीमपि

विप्रानाराध्यमन्त्री

स्वमिष्टार्थं

लमतेऽचिरात्

सप्तशत्याश्चरित्रे

तुप्रथमे

पद्मभूर्मुनिः

छन्दो

गायत्रमुदितं

महाकालीतु

देवता

वाग्वीजं

(

ऐँ

)

पावकस्तत्त्वं

धर्म्मार्थे

विनियो-जनम्

मध्यमे

चरित्रे

तु

मुनिर्विष्णुण्दाहृतः

उ-ष्णिक्छन्दो

महालक्ष्मीर्देवता

वीजमद्रिजा(

ह्रीँ

)

वायु-स्तत्त्वं

धनप्राप्त्यै

विनियोग

उदाहृतः

उत्तरस्य

चरित्रस्यऋषिः

शङ्कर

ईरितः

त्रिष्टुप्छन्दो

देवता

महा-पूर्व्वा

सरस्वती

कामोवीजं

(

क्लीँ

)

रविस्तत्त्वं

कामाप्त्यैविनियोजनम्

एवं

संस्मृत्य

ऋष्यादीन्

ध्यात्वा

पूर्वोक्तमार्गतः

सार्थख्यति

पठेच्चण्डीस्तवं

स्पष्टपदाक्षरम्

।समाप्तौ

तु

मक्षालक्ष्मीं

ध्यात्वा

कृत्वा

षडङ्गकम्

जपे-दष्टशतं

१०८

मूलं

देवतायै

निवेदयेत्

एवं

यः

कुरुतेसोऽत्र

नावसीदति

जातुचित्

चण्डिकां

प्रभजन्मत्यो-धनैर्धान्यैर्यशश्चयैः

पुत्रैः

पौत्रैरुचाऽऽरोग्यैर्युक्तोजीवेद्बहूः

समाः”

।निर्ण्णयसि०

परि०

शतचण्डीविधौ

विशेष

उक्तो

यथारुद्रयामले

“शतचण्डीविधानञ्च

प्रोच्यमानं

शृणुष्व

तत्सर्वोपद्रव्यनाशार्थं

शतचण्डीं

समारभेत्

षोडशस्तम्भसंयुक्तं

मण्डपं

पल्लवोज्ज्वलम्

वसुकोणयुतां

वेदीं

मध्येकुर्यात्त्रिभागतः

पक्वेष्टकचितां

रम्यामुच्छ्राये

हस्तस-ष्मिताम्

पञ्चवर्णरजोभिश्च

कुर्यान्मण्डलकं

शुभम्

।पञ्चवर्णवितानञ्च

किङ्किणीजालमण्डितम्

आच

र्केणसमं

विप्रान्

वरयेद्दश

सुव्रतान्

ऐशान्यां

स्थापयेत्कुम्भंपूर्वोक्तविधिनाचरेत्

वारुण्याञ्च

प्रकर्तव्यं

कुण्डंलक्षणलक्षितम्

मूर्तिं

देव्याः

प्रकुर्वीत

सुवर्णस्य

पलेनवै

तदर्धेन

तदर्धेन

तदर्धेन

महामते!

अष्टादशभुजा-न्देवीं

कुर्याद्वाष्टकरामपि

पट्टकूलयुगच्छन्नान्देवीं

मध्येनिधापयेत्

देवीं

संपूज्य

विधिवज्जपं

कुर्युर्दश

द्विजाः

।शतमादौ

शतञ्चान्ते

जपेन्मन्त्रं

नवार्णकम्

चण्डींसप्तशतीम्मध्ये

संपुटोऽयमुदाहृतः

एकं

द्वे

त्रीणि

च-त्वारि

जपेद्दिनचतुष्टयम्

रूपाणि

क्रमशस्तद्वत्

पूज-नादिकमाचरेत्

पञ्चमे

दिवसे

प्रातर्होमं

कुर्य्याद्विधा-नतः

गुडुचीम्पायसन्दूर्वान्तिलान्

शुक्लान्

यवानपि

।चण्डीपाठस्य

होमन्तु

प्रतिश्लोकन्दशांशतः

होमं

कु-र्य्याद्ग्रहादिभ्यः

समिदाज्यचरून्

क्रमात्

हुत्वा

पूर्णा-हुतिन्दद्यात्विप्रेभ्यो

दक्षिणां

क्रमात्

कपिलाङ्गांनीलमणिं

श्वेताश्वं

छत्रचामरे

अभिषेकन्ततः

कुर्युर्यज-मानस्य

ऋत्विजः

एवङ्कृतेऽमरेशान!

सर्वसिद्धिःप्रजायते”

“सहस्रचण्डीं

विधिवच्छृणु

विष्णोमहामते!

राज्यभ्रंशे

महोत्पाते

जनमारे

महाभये

।गजमारेऽश्वमारे

परचक्रभये

तथा

इत्यादिवि-विधे

दुःखे

क्षयरोगादिजे

भये

सहस्रचण्डिकापाठंकुर्य्याद्वा

कारयेत्तथा

जापकास्तु

शतम्प्रोक्ता

विंशद्ध-स्तश्च

मण्डपः

भोज्याः

सहस्रं

विप्रेन्द्रा

गोशतं

दक्षिणा-न्दिशेत्

गुरवे

द्विगुणन्देयं

शय्यादानन्तथैव

सप्त-धान्यं

भूदानं

श्वेताश्वं

मनोहरम्

पञ्चनिष्क-मिता

मूर्त्तिः

कर्त्तव्या

वाऽर्धमानतः

अष्टादशभुजा

देवीसर्वायुधविभूषिता

अवारितान्नं

दातव्यं

सहस्रंप्रत्यहम्प्रभो!

शतं

वा

नियताहारः

पयःपानेनवर्त्तयेत्

एवं

यश्चण्डिकापाठं

सहस्रं

तु

समाचरेत्

।तस्य

स्यात्कार्यसिद्धिस्तु

नात्र

कार्या

विचारणेति”

एत-द्द्वयं

यद्यपि

महानिबन्धेषु

नास्ति

तथापि

प्रचरद्रूपत्वादुक्तमिति

दिक्

वाराहीतन्त्रे

“सङ्कटे

समनुप्राप्तेदुश्चिकित्स्यामये

तथा

जातिभ्रंशे

कुलोच्छेदेऽप्यायुषोनाश

आगते

वैरिदृद्धौ

व्याधिवृद्धौ

धननाशे

तथा-क्षये

तथैव

त्रिविधोत्पाते

तथा

चैवातिपातके

कु-र्य्याच्चण्ड्याःशतावृत्तिन्ततः

सम्पद्यते

शुभम्

श्रेयोवृद्धिःशतावृत्ताद्राज्यवृद्धिस्तथा

परा

मनसा

चिन्तितन्देवि!सिध्येदष्टोत्तराच्छतात्

सहस्रावर्त्तनाल्लक्ष्मीरावृणोतिस्वयं

स्थिरा

भुक्त्वा

मनोरथान्

कामान्नरो

मोक्षमवा-प्नुयात्

चण्ड्याः

शतावृत्तपाठात्सर्वाः

सिध्यन्ति

सिद्धयः”

।२

काल्या

भैरवभेदे

पुंलिङ्गम्

“असिताङ्गोरुरुश्चण्ड

उन्मत्तःक्रोधनस्तथा”

तन्त्रसा०

श्यामावरणाष्टभैरवोक्तौ

।संज्ञायां

कन्

चण्डिका

सप्तवर्षायां

कुमार्य्याम्

अत्रैवशब्दे

मन्त्रमहोदधिवाक्यम्

दृश्यम्

Capeller German

चण्डी

कर्

erzürnen.

Stchoupak French

चण्डी-

v.

चण्ड°।